Book Title: Prachin Jain Grantho me Karmsiddhant ka Vikaskram Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 9
________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह आयु का बन्ध करते हैं। 76 जीवों को सदा प्रतिक्षण मोहनीय कर्म का बन्धन होने का उल्लेख है। 77 मोहनीय 78 कर्म के उदय से उन्माद 79 और प्रमाद होने तथा मैथुन संज्ञा उत्पन्न होने का निर्देश है 50 लोभ वेदनीय कर्म के उदय से परिग्रह संज्ञा होने का उल्लेख है। 81 स्थानांग में कर्म की अवस्थाओं में उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा का उल्लेख है। 82 एक स्थल पर जीवों द्वारा आठ कर्म प्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन और निर्जरण का उल्लेख है। सूत्रकृतांग में चर्चित उदय, बन्ध की अपेक्षा कर्म की अवस्थाओं की दृष्टि से अतिरिक्त सूचना भी मिलती है। परन्तु स्थानांग सहित पूर्ववर्ती सभी ग्रन्थों में कर्म की दसों अवस्थाओं का अभाव यह इंगित करता है कि इनका विकास क्रमशः हुआ है और स्थानांग के काल तक दसों अवस्थाओं की अवधारणा नहीं बनी थी। स्थानांग में कर्म प्रकृतियों के वेदन और क्षय का आध्यात्मिक दृष्टि से भी विचार किया गया है। यद्यपि इस दृष्टि से कुछ बिखरे हुए सूत्र ही प्राप्त होते हैं क्षीणमोह वाले अर्हन्त के तीन सत्कर्म एक साथ नष्ट होते हैं-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय 83 प्रथम समयवर्ती केवली जिन के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोह और आन्तरायिक ये चार कर्म क्षीण हो चुके होते हैं 34 प्रथम समववर्ती सिद्ध के चार सत्कर्म एक साथ क्षीण होते 我 • वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र 85 । 84 —— इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म की अवान्तर प्रकृतियों के पूर्ण व्यवस्थापन से पूर्व की स्थिति का ज्ञान स्थानांग से होता है। इसमें कर्मबन्ध और उनके कारणों आदि के सम्बन्ध में सूक्ष्मता से विचार की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। कर्म की अवस्थाओं के सम्बन्ध में भी पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा विकास परिलक्षित होता है। साथ ही आयुष्य कर्म के सम्बन्ध में परभव की आयु बाँधने का नियत समय भी उल्लिखित है। समवायांग I यह सामान्य अवधारणा है कि समवायांग एक संग्रह ग्रन्थ है। इसे ग्रन्थ-बद्ध करते समय उस काल पर्यन्त विद्यमान जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक अवधारणाओं को इसमें संग्रहीत कर लिया गया है। इसमें कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेखों का अवलोकन करने से भी इसी अवधारणा की पुष्टि होती है समवायांग में कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी जो उल्लेख मिलते हैं। संक्षेप में उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। उत्तर प्रकृतियों की संख्या, विभिन्न कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्या का अलग-अलग योग, कर्मबन्ध के कारण, मोहनीय कर्म के बन्ध के 30 कारण, मोहनीय कर्म के 52 नाम और विभिन्न आध्यात्मिक जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता और बन्ध का निर्देश उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त भी जैन कर्म सिद्धान्त के यत्र-तत्र कुछ बिखरे हुए सूत्र मिलते हैं जिनका विवेचन आगे किया जा रहा है। I 1 समवायांग के आरम्भ में बन्धन के दो प्रकारों राग और द्वेष का 86 5 कारणों मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का उल्लेख है जिसकी चर्चा ऋषिभाषित और स्थानांग में आ चुकी है। दर्शनावरणीय की 9 और मोहनीय कर्म की 28 अवान्तर प्रकृतियों, नाम कर्म की 42 अवान्तर प्रकृतियों का नाम निर्देश इसमें मिलता है। सम्भवतः समवायांग में अन्तिम दो के नाम पहली बार निर्दिष्ट हैं जहाँ तक दर्शनावरणीय कर्म की अवान्तर प्रकृतियों का नाम - निर्देश पूर्वक उल्लेख का सम्बन्ध है इससे पूर्व उत्तराध्ययन और स्थानांग में ये आ चुकी हैं। नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या की दृष्टि से समवायांग के ग्रन्थ-बद्ध होने के बाद भी इसका विकास होता रहा क्योंकि आगे चलकर नाम कर्म की अवान्तर प्रकृतियों की संख्या क्रमशः 67, 93 और 103 तक प्राप्त होती है। मोहनीय कर्म के 52 नामो87 का भी उल्लेख है जिसमें क्रोध कषाय के 10, मानकवाय के 11 माया कथाय के Jain Education International 109 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/Page Navigation
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