Book Title: Prachin Gurjar Kavya Sanchay
Author(s): H C Bhayani, Agarchand Nahta
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 11
________________ लगभग ४३ वर्ष पूर्व बीकानेर के खरतरगच्छीय ज्ञानभंडारों की हस्तलिखित प्रतियों की सूची का काम हमने प्रारंभ किया । तब हमें चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की कई हस्तलिखित प्रतियां देखने को मिली जिनमें प्राकृत-अपभ्रंशके साथ साथ प्राचीन राजस्थानी की भी रचनाएं लिखी हुई थीं । हमने उनमें से ऐतिहासिक रचनाओं का एक संग्रह तैयार करके 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' नामक ग्रंथ का सम्पादन किया, जिसमें बारहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के छोटे-मोटे ऐतिहासिक काव्य, गीत आदि संगृहीत किये गये थे। अनैतिहासिक रचनाओं का संग्रह भी हम करते गये । नयी नयी महत्त्वपूर्ण कृतियां यत्र तत्र मिलने लगी । हमारे संग्रह में एक संवत् १४९३ की लिखी हुई स्वाध्यायपुस्तिका प्राप्त हो गई और बीकानेर के बडे ज्ञानभंडार में भी सं १४३० के आस-पास की तीन महत्वपूर्ण संग्रपतियाँ मिली । फिर सं. १९९९ में जेसलमेर के ज्ञानभण्डारों का निरीक्षण करने गये तो वहां सं. १३८४ और १४३७ की संग्रहप्रतियाँ मिली जिनमें से सं. १४३७ वाली प्रति को हम बीकानेर आते साथ ले आये और उनमें से महत्त्व की रचनाओं को नकल भी कर ली। बीकानेर की जिनप्रभसूरि परंपरा की सं. १४२५ के लगभग की प्रति में से आबू-रास को तो 'राजस्थानी' पत्रिका में प्रकाशित किया गया और अन्य रचनाओं की नकल कर के रख ली । इस के बाद जोधपुर-अहमदाबाद-आगरा-पाटण आदि की संग्रहप्रतियों का भी उपयोग करते रहे । इस प्रकार विविध शैलियों की सैकड़ों रचनाओं की प्रतिलिपियाँ हम अपने संग्रहालय के लिए करते रहे हैं । उन्हीं में से कुछ चुनी हुई रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है । हमने अपनी नकलें डा. हरिवल्लभ भायाणो को भेज दी थीं। उन्होंने और कुछ हस्तप्रतियां देख कर पाटनिर्धारण और चयन का कार्य किया और इनके अलावा कुछ और प्राचीन रचनाओं का भी प्रस्तुत संग्रह के लिये सम्पादन किया । संग्रहप्रतियों की परम्परा काफी प्राचीन है और इससे छोटी छोटी रचनाओं का संरक्षण सुगमता से और अच्छी तरह हो सका है। जैन ज्ञानभण्डारों में 'विशेषावश्यक भाष्य' की दशमी शताब्दी की प्रति को छोड़ कर अन्य ताडपत्रीय प्रतियाँ बारहवीं शताब्दी से ही अधिक मिलने लगती हैं । बडे बडे आगमादि ग्रंथों की जो स्वतंत्र प्रतियाँ लिखी जाती थी और छोटे छोटे प्रकरणादि ग्रन्थों की संग्रह प्रलियाँ ही लिखी जाती थी जिससे एक ही प्रति से अपने उपयोगी रचनाओं का पठन-पाठन सुगमता से हो सके । जैसलमेर, सूरत, कोटा, पाटण, खंभात आदि के ज्ञानभंडारों में ऐसी कई ताड़पत्रीय संग्रहप्रतियाँ प्राप्त हैं, जिनमें प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश की छोटी छोटी रचनाओं का काफी अच्छा संग्रह है। कागज की संग्रहप्रतियां चौदहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक की अनेवों .: मिलती हैं । सोलहवीं से गुटकाकार प्रतियाँ भी लिखी जाने लगी। इससे पूर्व की संग्रह..। प्रतियाँ प्रायः पत्राकार हैं, उनमें खुले पत्र होने से जिसे जिस रचना की आवश्यकता हुई ...उसको बीच के पत्र निकाल कर अलग रख लिए । इसलिए प्रायः जितनी भी संग्रहप्रतियां मिली हैं उनमें से बहुत सी प्रतियों के बीच बीच काफी पत्र अब नहीं मिलते । उन संग्रहप्रतियों की सूची भी बनायी जाती रही है उनसे यह भी मालुम हो जाता है कि प्रति के किस पत्रमें Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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