Book Title: Pitar Sankalpana ki Jain Drushti Se Samiksha
Author(s): Anita Bothra
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ सप्टेम्बर २००८ ६९. परिशिष्ट में देखे । इससे 'पितर' संकल्पना की दृढमूलता तथा व्याप्ति दिखायी देती है। (अ) कुछ प्रातिनिधिक ग्रन्थों में उल्लिखित पितर सम्बन्धी मान्यताएँ : (१) ऋग्वेद : ऋग्वेद में यम वैवस्वत को पितृसम्राट कहा है । यम पितरों का मुख्य है । अंगिरस इ. पितरों के कई गण हैं । यम का सम्बन्ध यज्ञ से जोडा गया है। अनेक प्रकार के पितर देवताओं के नाम दिये गये हैं । पुरातन पितरों को यम तथा वरुण का दर्शन करने की बिनती की है । 'पुण्यवान पितर स्वर्लोक में जाएँ तथा स्वर्लोक के पितर स्वस्थान में जाएँ इस प्रकार की भावना व्यक्त की है। यज्ञफल देने में पितरों का भी सहभाग होता है। भक्तों की पूजा से पितर सन्तुष्ट होते हैं तथा अपराध से क्रुद्ध होते हैं । 'मृतदेह में नवीन जीव डालकर तू पितरों को सौपा दे', इस प्रकार की प्रार्थना अग्नि से की है । 'स्वच्छन्द' पितरों को पाचारण किया है । (२) तैत्तिरीय ब्राह्मण : तैत्तिरीय ब्राह्मण में पितर, पिण्डदान, पिण्डपितृयज्ञ, पितृप्रसाद, पितृलोक इ. के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है । पितर देवात्मक और मनुष्यात्मक है । 'देवात्मक पितर' पितृलोक के स्वामी हैं । मरण के उपरांत पितृलोक का उपभोग लेने के लिए जो पितृलोक को प्राप्त होते हैं उनको 'मनुष्यात्मक पितर' कहते हैं । देवात्मक पितरों की तृप्ति के बाद ही मनुष्यात्मक पितरों को तृप्त करना चाहिए । (३) मनुस्मृति : मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के आधार से निम्नलिखित तथ्य दृग्गोचर होते हैं - मनुस्मृति के काल में पितृतर्पण तथा श्राद्धविधि समाज के चारों वर्णो द्वारा किये जाते थे । सब लोगों से विधि करानेवाला समाज, ब्राह्मण पुरोहित समाज था । ऋग्वेद में पितरों को ध्यान में रखकर सामान्य रूप से किया हुआ आवाहन अब अपने अपने कुल के तीन मृत पुरुषों को १. ऋग्वेद १०.१४;१०.१५; १०.१६ २. तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रपाठक ३, अनुवाद १०, पृ. ६५ से ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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