Book Title: Pitar Sankalpana ki Jain Drushti Se Samiksha Author(s): Anita Bothra Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 9
________________ ७६ अनुसन्धान ४५ ( अमर्यादित संग्रह) करने से, (३) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, (४) मांसभक्षण से [२९ यहाँ यज्ञनिन्दा स्पष्ट रूप में नहीं की है। लेकिन 'धर्मोपदेशमालाविवरण' में इन चार कारणों का सम्बन्ध स्पष्टतः यज्ञीय कृति से जोडकर उसकी निन्दा की है ।३० (३) वेदाध्ययन, वेदों का तारकत्व तथा ब्राह्मणभोजन का महत्त्व : उत्तराध्ययन के १४ वे इषुकारीय अध्ययन में एक पुरोहित के दो पुत्रों का संवाद प्रस्तुत किया है । पुरोहित अपने विरक्त पुत्रों से कहता हैअहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते परिट्ठप्प हिंसि जाया ! | भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था ॥ ३१ इस गाथा में वेदाध्ययन का महत्त्व, ब्राह्मणभोजन, पुत्रोत्पत्ति आदि गृहस्थसम्बन्धी क्रियाओं की अनिवार्यता पुरोहित के वचनद्वारा दर्शायी है । पुरोहितपुत्र जवाब देते हैं कि वेया अहीया न हवंति ताणं, भुत्ता दिया निंति तमं तमेण । जाया य पुत्ता न हवंति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ? ॥ ३२ इस गाथा के द्वारा वेदों का तारणस्वरूप न होना, भोजन दिये हुए ब्राह्मणों का अधिकाधिक अज्ञानद्वारा यजमान को गुमराह करना, गृहस्थाश्रम की अनिवार्यता न होना इ. बातें स्पष्ट रूप से कही हैं । ब्राह्मणों को दिया हुआ भोजन पितरों तक पहुँचकर वे तृप्त हो जाते हैं इस मान्यता में जो अतार्किकता और असम्भवनीयता है उसका निर्देश इस संवाद में स्पष्टतः दिखायी देता है। इसलिए यद्यपि यहाँ पितरों का स्पष्टतः निर्देश नहीं है तथापि उस संकल्पना का निषेध ही यहाँ अन्तर्भूत या सूचित है । २९. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) ८.४२५ स्थानांग ४.६२८ ३०. धर्मोपदेशमालाविवरण पृ. ३०-३१ ३१. उत्तराध्ययन १४.९ ३२. उत्तराध्ययन १४.१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13