Book Title: Pitar Sankalpana ki Jain Drushti Se Samiksha Author(s): Anita Bothra Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 7
________________ अनुसन्धान ४५ • बृहदारण्यक में बताया है कि पितृलोक आनन्दमय है ।२२ मार्कण्डेयपुराण में वर्णन किया है कि पितर देवलोक में, तिर्यग्योनि में, मनुष्यों में तथा भूतवर्गों में भी होते हैं । कोई पुण्यवान तो कोई पुण्यहीन होते हैं । वे सब क्षुधा के कारण कृश तथा तृष्णा से व्याकुल होते हैं । कर्मनिष्ठ पुरुष पिण्डोदक दान से इन सबको तृप्त करें ।२३ एक तरफ पितृलोक के आनन्दमयता की बात करना और दूसरी तरफ पिण्डोदक द्वारा उनके तृप्ति की बात करना इसमें कतई तालमेल नहीं है। ब्राह्मणों के लिए नित्य पंचमहायज्ञों का विधान है। उनमें एक पितृयज्ञ भी है ।२४ इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मणों के पितरों की नित्य तृप्ति का विधान है । क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र पितरों के बारे में इस प्रकार का विधान नहीं है । इस प्रकार की तथा कई अन्य प्रकार की ब्राह्मण पक्षपातिता इन ग्रन्थों में स्पष्टतः दिखायी देती है। 0 वेदकाल में यह माना जाता था कि मृतात्मा प्रेतदहन के बाद तत्काल पितरपद प्राप्त करता है । गृह्यसूत्रों के काल में इस कल्पना में परिवर्तन आये । उसमें कहा गया है कि देह छोडने के बाद मृतात्मा प्रेतयोनि में एक साल तक रहता है। इस अवस्था में अनन्त यातनाओं का भागी होता है । उसको पीडामुक्त करने के लिए एकोद्दिष्ट, सपिण्डीकरण इ. श्राद्धों का विधान है। पौराणिक काल में एक अन्य संकल्पना सामने आयी । उनके अनुसार मृतात्मा शरीरदहन के बाद 'अतिवाहिक' नाम का सूक्ष्म शरीर धारण करता है। इस अवस्था में उसको क्षुधा, तृष्णा आदि क्लेश होते हैं । पिण्डदान आदि के बाद अतिवाहिक अवस्था से मुक्त होकर उसे 'प्रेतशरीर' प्राप्त होता है। उसके बाद एकोद्दिष्ट आदि करने से प्रेतशरीर नष्ट होकर पितरपद को प्राप्त होता है ।२५ मृतात्मा पितर बनने की प्रक्रिया के बारे में वैदिक परम्परा में इतने सारे बदलाव दिखायी देते हैं । ७ मत्स्यपुराण में पितरों के वायुरूप होने का उल्लेख पाया जाता है ।२६ २२. पितर व पितृलोक पृ. १३ २५. भारतीय संस्कृतिकोश पृ. ५६७ २३. मार्कण्डेयपुराण २३.४९ ते ५२ २६. मत्स्यपुराण १७.१८ २४. तैत्तिरीय संहिता २.४; मनुस्मृति ३.८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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