Book Title: Patanjal yoga aur Jain Yoga Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / १७
वध, याचना, अलाम, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अवर्शन । उपर्युक्त बाईस परीषहों में एक जीव के एक साथ उन्नीस परीषह होने का उल्लेख जैन प्राचार्यों ने किया है, क्योंकि शीत और उष्ण में से एक और चर्या, निषद्या व शैय्या परीषहों में से कोई एक ही हो सकता है।
स्वाध्याय-बार-बार मोक्ष प्रतिपादक प्राध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन करना योगशास्त्र में स्वाध्याय नामक नियम कहा गया है । इसकी तुलना जैनदर्शन में मान्य श्रुतभावना और स्वाध्याय नामक आन्तरिक तप से की जा सकती है। प्राचार्य जयसेन के अनुसार प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप चार प्रकार के प्रागमों का अभ्यास करना श्रुतभावना कहलाती है।' प्रा० पूज्यपाद ने आलस्य को त्याग कर ज्ञान की आराधना करने को स्वाध्याय तप कहा है। मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के पाँच भेद बतलाये हैं। परियट्ठणाय (आम्नाय), वायण (वाचना), पडिच्छणा (पृच्छना), अणुपेहया (अनुप्रेक्षा) और धम्मकहा (धर्मोपदेश),3 इनके स्वरूपादि का विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थसूत्र की टोकाओं में उपलब्ध है।
ईश्वर-प्रणिधान-फलों की प्राकांक्षा किये बिना सभी प्रकार के कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है। जैनदर्शन में अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय
और साधु ये पाँच परमेष्ठी माने गये हैं। प्रत्येक योगी इनके प्रति निष्काम भाव से श्रद्धा रखता है। इनके अलावा और किसी अन्य ईश्वर (जगत के कर्ता-धर्ता) में इस प्रकार भक्ति भावना नहीं रखता है।
आसन-योगदर्शन की भाँति जैनदर्शन में भी योगी के लिये प्रासन का विधान किया गया है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में और प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में प्रासन के योग्य स्थान और प्रासन के भेदों का विवेचन किया है। काष्ठ का तख्ता, शिलापट्ट, भूमि और बालुयुक्त स्थान प्रासन के योग्य हैं। योगसिद्धान्तचन्द्रिका में अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अधिक प्रासनों के भेद बतलाये गये हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने पर्यकासन, अर्द्ध पर्यकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्गासन को ध्यान के योग्य बतलाया है। हेमचन्द्र ने उपर्युक्त आसनों के अलावा भद्रासन, दण्डासन, उत्कुटकासन और गोदोहिकासन
१. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवत्ति, गाथा १७५, पृ० २५८ २. प्रा० पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ९।२०, पृ० ४३९
(क) वट्टकेर, मूलाचार, गा० २९३
(ख) उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ९।२५ ४. (क) ज्ञानार्णव, २८११-११
(ख) योगशास्त्र, ४११२३-१३६. दारुपट्टे शिलापट्ट भूमो वा सिकतस्थले ।
समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।। -ज्ञानार्णव, २८९ ६. डॉ० (कू.) विमला कर्णाटक, भारतीय दर्शन (सं०-डॉ० न० कि० देवराज) पृ० ४१३ ७. ज्ञानार्णव, २८।१०
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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