Book Title: Patanjal yoga aur Jain Yoga Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 16
________________ पातंजल-योग और जैन-योग : एक तलनात्मक विवेचन | २१ ध्यान-योग-दर्शन में योग का सातवां अंग ध्यान बतलाया गया है। जैनदर्शन में ध्यान का सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, क्योंकि ध्यान मोक्ष का कारण माना गया है। योगदर्शन में पतंजलि ने ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जब धारणा के देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप होने लगता है तब वह ध्यान कहलाता है।' जैनदर्शन में उमास्वाति, प्रा० पूज्यपाद, कार्तिकेय, रामसेनाचार्य प्रादि प्राचार्यों ने ध्यान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हए कहा है कि विभिन्न विषयों का चिन्तन करने से चित्त चंचल होता है। उसे समस्त विषयों से हटाकर एक ही विषय का चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। अतः एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यान कहते हैं। ज्ञानार्णव, ध्यानशतक, ध्यानशास्त्र, योगशास्त्र आदि में ध्यान के भेद, ध्याता, ध्येय, ध्यान-फल, ध्यान के योग्य देश-कालअवस्था आदि का सूक्ष्म विवेचन किया है । शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने अन्य ध्यानों के अलावा सवीर्यध्यान, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत धर्मध्यान का अनन्य वर्णन किया है।' योगियों के लिए 'ज्ञानार्णव' ध्यान का अविकल ग्रन्थ है। समाधि-योग का अन्तिम अंग समाधि है। भद्र अकलंकदेव ने ध्यान और समाधि को ही योग का चरम लक्ष्य माना है। योगदर्शन-सम्मत समाधि के लिए जनदर्शन में शुद्धोपयोग शब्द का प्रयोग हुआ है। समाधि की व्युत्पत्ति की गई है कि 'सम्यगाधीयते एकाग्री क्रियते विक्षेपान परिहत्य मनो यत्र स समाधिः'४ अर्थात् अच्छी तरह से विक्षेपों को हटाकर चित्त का एकाग्र होना समाधि है । 'समाधि' शब्द 'सम+अधि' से बना है। सम का अर्थ एक रूप करना है। अतः समाधि का अर्थ हा मन को उत्तम परिणामों में अर्थात शुभोपयोग या शुद्धोपयोग में एकाग्र करना। समाधि अवस्था में ध्यान, ध्येय और ध्याता का भेद मिट जाता है। समाधि में बाह्य और प्रान्तरिक समस्त प्रकार के जल्पों का क्षय हो जाता है और एक मात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा का चिन्तन होता है। १. 'तत्र प्रत्यकतानता ध्यानम् ।' -योगसूत्र ३।२ २. (क) एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्महात् । -त. सू. ९४२७ (ख) अंतो-मुहुत्त-मेतं लोणं वत्थुम्मि माणसं गाणं । झाण भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ --कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ४७० (ग) एकाग्र चिन्तनं ध्यान..........."एकाग्र-चिन्ता-रोधे यः परिस्पन्देन वजितः -श्री रामसेनाचार्य, तत्त्वानुशासन, श्लोक ३८, ५६ और भी देखें ६०-६१. ३. ज्ञानार्णव ३१ सर्ग, ३७ सर्ग, ४१ सर्ग । योगसार ७-१० प्रकाश । ४. द्रष्टव्य-उपाध्याय बलदेव, भा० द०, पृ० ३०४ ५. (क) समेकीभावे वर्तते"..."| समाधानं मनस: एकाग्रताकरणं शुभोपयोगे शुद्धे वा । --भगवती आराधना, विजयोदया टीका ६४ पृ० १९४ (ख) यत्सम्यक् परिणामेष चित्तस्याधानमंजसा । स समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् ॥ -जिनसेन, महापुराण, २१४२२६ ६. सयल-वियप्पहं जो विलउ परम समाहि भणं ति । तेण सुहासुह-भावणा मुणि सयलवि मेल्लं ति ।। -परमात्मप्रकाश, २११९० आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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