Book Title: Patanjal yoga aur Jain Yoga Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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पंचम खण्ड /२०
अर्चनार्चन
आवश्यक है। इसी को प्रत्याहार कहते हैं।' प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने प्रत्याहार का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि इन्द्रियों और मन को उनके विषयों से खींचकर प्रशान्त बुद्धि वाले साधक द्वारा अपनी इच्छानुसार उन्हें जहाँ चाहे वहाँ लगाना प्रत्याहार कहलाता है । प्रत्याहार की विधि प्रतिपादित करते हुए बतलाया गया है कि योगी इन्द्रियों को विषयों से अलग करके मन को इन्द्रियों से अलग करे और निराकुल मन को ललाट पर लगाये । प्रत्याहार धर्मध्यान के लिए आवश्यक है। प्राणायाम से मन विक्षिप्त हो जाता है, इसलिए समाधि की सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना आवश्यक होता है, अर्थात् प्रत्याहार से मन पुनः स्वस्थ होकर समस्त रागादि रूप उपाधियों से रहित होकर समभाव युक्त हो जाता है और प्रात्मा में लीन हो जाता है। इस प्रकार प्रत्याहार योगी के लिए आवश्यक है।
धारणा-पातंजल दर्शन में योग का छठा अंग धारणा है। प्रत्याहार के द्वारा योगी का मन स्थिर हो जाता है। उस स्थिर मन को देश-विशेष में स्थिर करना धारणा है। प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के अनुसार ललाट, नेत्रयुगल, दोनों कान, नाक का अग्रभाग, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और दोनों भौंहों के मध्यभाग में से किसी एक पर चित्त को स्थिर करना धारणा है।' योगदर्शन में उपर्युक्त धारणा के आध्यात्मिक देशों के अलावा सूर्य, चन्द्र और अग्नि को धारणा के बाह्यदेश कहा है । 'सिद्धान्तचन्द्रिका' में महाभूत विषयक धारणा-पाथिवीय धारणा, जलीय धारणा, तैजसीय धारणा, वायुवीय धारणा तथा नाभसी धारणा-का भी उल्लेख है । इनका दूसरा नाम क्रमशः स्तंभिनी, प्लाविनी, दहनी, भ्रामणी तथा समनी है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी इन पांच धारणामों का विस्तृत विवेचन किया है।
१. इन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रत्याह्रियन्ते विमुखीक्रियन्तेऽनेनेति प्रत्याहारः ।
डॉ० (कु.) विमला कर्णाटक, भा. द. (संपादक डॉ० न. कि. देवराज) पृष्ठ ४१५ समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः ।
यत्र यत्रेच्छया धन्ते स प्रत्याहार उच्यते ।। -ज्ञानार्णव ३०११ ३. इन्द्रियः समाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः ।
धर्मध्यानकृते तस्मात् मनः कुर्वीत निश्चलम ॥ --योगशास्त्र, ६५६ ४. ज्ञानार्णव, ३०१४-५ ५. 'देशबन्ध श्चित्तश्य धारणा'
-योगसूत्र, ३११ ६. (क) नाभि-हृदय-नासाग्र-भाल-भू-तालु दृष्टयः ।
मुखं कणौँ शिरश्चेति ध्यान-स्थानान्यकीर्तयन । -योगशास्त्र ६१७-८ (ख) शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव, ३०।१३ ७. प्रा० नारायण तीर्थ, योग या सिद्धांतचन्द्रिका, १० १०५ और भी देखें भा० द०
(संपादक डॉ० न० कि० देवराज), पृ० ४१६ ८. पाथिवी स्यादथावनेयी मारूती वारूणी तथा ।
तत्रभः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा॥ -योगशास्त्र, ७१९, ७।१०-३५.
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