Book Title: Patanjal yoga aur Jain Yoga Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 11
________________ Jain Education International पंचम खण्ड / १६ संतोष योगदर्शन में दूसरा नियम संतोष माना गया है। संतोष नियम के अनुसार योगी की इच्छाओं को रोककर जो कुछ प्राप्त हो उसी में सन्तुष्ट रहना पड़ता है। तृष्णा के होने से प्रसन्तोष होता है । तृष्णा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय के कारण होती है । इसलिए जैन- योग सिद्धान्त में कषायों को जीतने का उपदेश योगी को दिया गया है । १. कषायों का शमन हो जाने से इच्छात्रों का निरोध स्वयं हो जाता है । जैनदर्शन में भी सन्तोष भावना का चिन्तन करने का योगी को उपदेश दिया गया है । आचार्य जयसेन ने सन्तोषभावना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि मान-अपमान में समता से और प्रशन - पानादि में यथालाभ से समताभाव रखना संतोषभावना है । तपस् - नियम का तीसरा भेद तपस् या तप नियम है। क्लेश, कर्मवासना का शुद्धीकरण जिसके द्वारा होता है वह तप कहलाता है । योगदर्शन में सुख-दुःख, प्रातप-शीत, भूखप्यास आदि का सहन करना तप कहा गया है। भगवती आराधना में पाँच असं क्लिष्ट भावनाओं में तप नामक भावना बतलाई गई है। प्राचार्य शिवकोटि ने बतलाया है कि तपश्चरण से इन्द्रियों का मद नष्ट हो जाता है और इन्द्रियाँ बलवर्ती हो जाती हैं। प्राचार्य जयसेन ने भी कहा है कि तपभावना से विषय कषाय पर विजय मिल जाती है । ४ 1 " जैनदर्शन में बारह प्रकार के तप बतलाये गये हैं, जिनका वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है—६ बाह्य तप और ६ ग्राभ्यन्तर तप अनशन, अवमौदर्य वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त- शयनासन और कायक्लेश, ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह ग्राभ्यन्तर तप हैं । " योगदर्शन के तप नियम की तुलना जैनदर्शन में बतलाये गये बाह्य तपों से की जा की तुलना जैनदर्शन में मान्य "परीषहजय" से की जा के कारणों में "परीषहजय" को भी बतलाया है । स्वामी आदि की वेदना को शान्त भाव से सहन करना परीषजय कहा है। सकती है। सकती है कार्तिकेय । ने इसके अलावा तप-नियम तत्वार्थ सूत्रकार ने संवर अत्यन्त भयानक भूख उमास्वाति ने परीषहजय की आवश्यकता बतलाते हुए कहा है कि संवर के मार्ग से भ्रष्ट न होने के लिए कर्मों की निर्जरा के लिए परीषह को जीतना श्रावश्यक है । परीषह के बाईस प्रकार हैं । 5 क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, वंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, १. प्रा. शुभचन्द्र ज्ञानार्णव सर्ग २०, पृष्ठ १९८-९९ २. तवभावना य सुदसत्तभावणेगत्त भावणा चैव । घिदिवलविभावणाविय असं किलिद्वावि पंचविह्ना ॥ भगवती आराधना, गा० १८७ ३. वही, १०८ ४. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, गा० १७३, पृ० २५४ ५. उमास्वाति तत्त्वार्यसूत्र ९।१९-२० For Private & Personal Use Only ६. सो वि परिसह विजयो छुहादि पीडाण अइरउद्दाणं । सवणाणं च मुणीण उवसम-भावेण जं सहणं ॥ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ९५ ७. तत्त्वार्थ सूत्र ९ब ८. वही ९१९ www.jainelibrary.org

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