Book Title: Paryaye Krambaddh bhi Hoti Hai aur Akrambaddh bhi Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 5
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त १५१ जो कार्यरूप परिणत हो या उस कार्यरूप परिणतिमें उसकी सहायक हो । जो वस्तु कार्य रूप परिणत होती है। उस वस्तुका कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना निर्विवाद है, परन्तु जो वस्तु उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होतो है उस वस्तुका भी उस कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना आवश्यक है, जैसा कि परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके तृतीय समुद्देशके सूत्र ६३ की प्रमेयरत्नमाला - टीकामें कहा गया है "अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्यं प्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षा वेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशं प्रति ।" अर्थ - कार्यकारणभावकी सिद्धि अन्वय और व्यतिरेकपर आधारित है । तथा वे ( अन्वय और व्यतिरेक) कार्यके प्रति कारणव्यापार सापेक्ष ही सिद्ध होते हैं, जिस प्रकार घटकार्यके प्रति कुम्भकारके अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध होते 1 अतएव कहा जा सकता है कि अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर जैसा कार्यकारणभाव स्वप्रत्ययकार्य और उपादानमें व स्व-परप्रत्ययकार्य और उपादानकारण तथा निमित्तकारणमें निर्णीत होता है वैसा कार्यकारणभाव उस कार्य और उक्त देश व कालमें निर्णीत नहीं होता क्योंकि कार्योत्पत्तिमें जिस प्रकार उपादानकारण कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर व प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तकारण उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी सिद्ध होते उस प्रकार उस कार्योत्पत्तिमें उक्त देश और उक्त काल कार्यरूप परिणत होने या उसमें सहायक होते रूपसे कार्यकारी सिद्ध नहीं होते । तात्पर्य यह है कि देश, कार्य और कारणभूत वस्तुओंका अवगाहक मात्र होता है व कालके आधारसे कार्य और कारणभूत वस्तुओंकी वृत्ति ( मौजूदगी ) मात्र सिद्ध होती हैं । तथा कालद्रव्यकी जो पर्यायें हैं वे उन द्रव्योंकी पर्यायोंका सोमानिर्धारण या विभाजन मात्र करती हैं । अतएव देश और कालकी कार्योत्पत्तिमें कुछ भी उपयोगिता नहीं है, केवल आवश्यकतानुसार उपादान कारण व प्रेरक और उदासीन निमित्तकारण ही कार्योत्पत्ति में उपयोगी होते हैं । आगममें जो यह बतलाया गया है कि क्षेत्रकी अपेक्षा भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रोंके भव्य मानव ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, हेमवत आदि क्षेत्रोंके भव्य मानव नहीं । इसी प्रकार कालकी अपेक्षा विदेह क्षेत्रके भव्य मानव मोक्ष प्राप्ति के अनुकूल स्थिति विद्यमान रहनेके कारण सर्वदा मुक्त हो सकते हैं, तथा भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके भव्य मानव उत्सर्पिणी कालके तृतीय भाग में व अवसर्पिणी कालके चतुर्थ भाग में सामान्य रूपये एवं अवशर्पिणी कालके तृतीय भागके अन्तिम हिस्सेमें व पंचम भागके प्रारम्भिक हिस्से में अपवाद रूपसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके शेष भागों में या उन भागों के किसी अन्य हिस्से में कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । सो आगमके इस कथनसे यद्यपि देश ओर कालको भो मुक्तिरूप कार्यके प्रति उदासीनरूपसे निमित्तकारणता सिद्ध होती है, परन्तु इस कथनका यही आशय है कि जीव और पुद्गल द्रव्योंके यथायोग्य मध्यम उत्कर्षायकर्षमय देश और कालकी स्थिति ही जीवको मुक्ति प्राप्त करनेमें उदासीनरूपसे निमित्तकारण सिद्ध होती है । अमूर्त होने के कारण देश और कालको मुक्तिके प्रति कारणता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि देश और कालका कार्य ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । यदि देश और काल भी जीवको मुक्ति प्राप्त करनेमें उदासीनरूपसे निमित्त - कारण होने लगें, तो ऐसी स्थिति में कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा - ३२१-२२ व पद्मपुराण सर्ग - ११० के श्लोक ४० में उनका कारणसामग्रीसे पृथक् निर्देश करना असंगत हो जायेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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