Book Title: Paryaye Krambaddh bhi Hoti Hai aur Akrambaddh bhi
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
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३ / धर्म और सिद्धान्त १५९
श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्य कारणभावपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिमें उपयोग किया है । मुझे इस बात - का भी आश्चर्य है कि सोनगढ़ सिद्धान्तवादी वर्ग भी उनके उपदेशसे प्रभावित होकर उनकी अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्कके विरुद्ध मान्यताका अनुसरण कर रहा है। मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसी और डॉ० हुकुमचंद्र भारिल्ल जयपुरने उक्त मान्यताको पुष्ट किया है । मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि डॉ हुकमचन्द्र भारिल्लकी क्रमबद्ध पर्याय' पुस्तक में निर्दिष्ट आचार्यो मुनिराजों, व्रतियों, विद्वानों और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओंने आगम के अभिप्रायको समझने की चेष्टा न करके उनकी मान्यताका समर्थन किया और मुझे इस बात का भी आश्चर्य है कि कतिपय अन्य साधु, व्रती, विद्वान् और सामान्य जन भी कार्योंत्पत्तिके विषयमें उनकी (कानजीस्वामीको ) उस मान्यताको स्वीकार करने के लिए उत्सुक हैं । ऐसी विचित्र दशा देखते हुए मेरी दृष्टि आगमके उस वचनपर जाती है जिसमें यह बतलाया गया है कि सिद्धान्तग्रन्थोंका पठन-पाठन गृहस्थोंके लिए उचित नहीं है । वर्तमान में तो आगमका वह वचन कतिपय साधु-संतों पर भी लागू होता है । वास्तव में सिद्धान्तका अनर्थ और दुरुपयोग रोकनेसे लिए ही आचार्योंने बड़ी सूझ-बूझसे सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययनका सर्वसाधारणके लिए निषेध किया है ।
मुझे आशा है कि सोनगढ़ सिद्धान्तवादी सभी जन मेरे इस विवेचनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करके तथ्यका निर्णय करेंगे । तथा आगमके अभिप्रायको समझने में लापरवाह एवं संशय में पड़े हुए पुरातन सिद्धान्तवादी सभीजन भी उत्पत्तिकी अपेक्षा आगम द्वारा स्वीकृत व अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्कसे सिद्ध स्वप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्तिको क्रमबद्ध और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको निमित्तोंके समागमके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध ही मान्य करेंगे |
केवलज्ञानको विषयमर्यादा
समयसार गाथा १०३ में बतलाया गया है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके साथ संयुक्त या बद्ध होनेपर भी वे दोनों द्रव्य कभी तन्मयरूपसे एकताको प्राप्त नहीं होते । और न एक-दूसरे द्रव्यके गुण-धर्म ही एकदूसरे द्रव्य में संक्रमित होते हैं
हि गुणे दव्वे सो अष्णम्हि ण संकर्मादि दव्वे ।
पंचास्तिकायकी गाथा ७ में भी बतलाया गया है कि सभी द्रव्य परस्परमें प्रविष्ट होते हुए भी, परस्परको अवगाहित करते हुए भी और परस्पर ( दूध और जलकी तरह) मिलकर रहते हुए भी कभी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं
अण्णोष्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगं सहावं ण विजर्हति ॥
तात्पर्य यह है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात् काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं वे सभी यथायोग्य परस्पर संयुक्त होकर ही रह रहे हैं तथा जोव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध होकर भी रह रहे हैं । तथापि सभी द्रव्य अपने-अपने द्रव्यरूप, गुणरूप और पर्यायरूप स्वभावमें रह रहे हैं और रहते जावेंगे। कोई भी पदार्थं संयुक्त या बद्ध दशामें दूसरे पदार्थ की द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपताको प्राप्त नहीं होता, न हो सकता है। इतना अवश्य है कि सभी पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त या बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना स्व- परप्रत्यय परिणमन करते
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