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पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी
पूर्वपक्षका प्रश्न--द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्याय नियतक्रमसे ही होती हैं या अनियतक्रमसे भी ? उत्तरपक्षका उत्तर-द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्याय नियतक्रमसे ही होती है ।
समीक्षा पर्यायोंका विवरण
१. प्रवचनसारके दूसरे ज्ञेयतत्त्वाधिकारकी गाथा १ में बतलाया है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं । प्रत्येक द्रव्यमें स्वतःसिद्ध अनन्त गुण हैं। तथा प्रत्येक द्रव्यमें द्रव्य-पर्यायें व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुणमें गुणपर्यायें होती हैं । तत्त्वार्थसूत्रके "गुणपर्ययवद्रव्यं" (५-३८) सूत्रका भी यही अभिप्राय है।
२. तत्त्वार्थसूत्रके "सद्रव्यलक्षणम्” (५-२९) सूत्रमें द्रव्यका लक्षण "सत्" कहा है तथा द्रव्यका स्वतःसिद्ध स्वभाव होनेसे गुण भी "सत्" कहलाता है। प्रत्येक द्रव्यमें व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुणमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रोव्यरूपसे परिणमन होता रहता है। द्रव्य और गुणकी स्व-स्व उत्तरपर्यायके विकासको उत्पाद और पूर्वपर्यायके विनाशको व्यय कहते है। द्रव्यों और गुणोंमें ये उत्पाद और व्यय दोनों उनकी द्रव्यरूपता और गुणरूपताको सुरक्षित रखकर ही होते हैं । अतः द्रव्य और गुणमें ध्रौव्यरूपता भी सतत् बनी रहती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत" (५-३०) सूत्रमें सत्का लक्षण ऐसा ही निर्धारित किया गया है। पर्यायोंकी द्विरूपता :
सभी द्रव्यपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होती हैं तथा सभी गुणपर्यायोंमेंसे षट्गुणहानि-वृद्धिरूप पर्यायें स्वप्रत्यय और इनके अतिरिक्त शेषगुणपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होती हैं। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीकी सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो उसे स्व-परप्रत्यय और जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीकी सहायताके बिना उपादानकारणजन्य हो उसे स्वप्रत्यय कहते हैं। पर्यायका-विभाजन कालद्रव्यकी अखण्ड पर्यायभूत समयसापेक्ष होनेसे द्रव्य और गुणकी प्रत्येक पर्याय समयवर्ती मानी गई है। उभय पर्यायोंकी आगमद्वारा पुष्टि :
तत्त्वार्थसूत्रके "निष्क्रियाणि च" (५-७) सूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि में व नियमसारकी गाथा १४ के उत्तरार्द्ध में पर्यायोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेद स्पष्ट स्वीकार किये गये हैं। पर्यायोंको उत्पत्ति में नियतक्रमता और अनियतक्रमताका निर्णय :
यतः स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति निमित्तनिरपेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर होती है, अतः वह नियतक्रमसे ही होती है और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर होती है, अतः वह निमित्तोंके समागमके अनुसार नियतक्रमसे भी होती है और अनियतक्रमसे भी होती है।
१. वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट, वाराणसी, द्वारा प्रकाशित, १९८४ ई० । २. अत्थो खलु दव्वमओ दन्वाणि गणप्पगाणि भणिदाणि ।
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥१॥
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१४८ : सरस्वतीवरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी अन्य आगमवचनों द्वारा पुष्टि :
समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकामें "जीवो हि तावत क्रमनियमितात्मपारिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः" यह कथन पाया जाता है। इस कथनमें विद्यमान 'जीव एव नाजीवः" और "अजीव एव न जीवः" इन दोनों अंशोंसे ज्ञात होता है कि जीवकी पर्याय अजीवकी सहायतापूर्वक और अजीवकी पर्यायें जीवकी सहायतापूर्वक उत्पन्न होती हैं । यदि ऐसा न माना जावे, तो उक्त कथनके ये दोनों अंश निरर्थक हो जायेंगे, क्योंकि जीवको अजीवरूप और अजीवको जीवरूप माननेका प्रसंग तभी उपस्थित होता है जब जीवकी पर्यायोंका अजीवके साथ और अजीवकी पर्यायोंका जीवके साथ निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणसम्बन्ध माना जावे। समयसार-कलश १९५ में स्पष्ट कहा गया है कि जीवका प्रकृतियोंके साथ जो बन्ध होता है वह जीवके अज्ञानभावका ही माहात्म्य है । समयसार की गाथा ३१२-१३ में तो और भी स्पष्ट लिखा है कि जीव प्रकृतिके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होता है व प्रकृति जीवके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होती है। समयसारकी गाथा ८०, ८१ और १०५ तथा प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी गाथा ७७ से भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंका स्पष्ट समर्थन होता है।
इसके अलावा जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षा (भाग-१) के अन्तर्गत प्रश्नोत्तर-१की समीक्षामें मैंने तर्क और आगम प्रमाणोंके आधारसे निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन (अप्रेरक) दो भेद बतलाकर उनके लक्षण इस रूपमें निर्धारित किये हैं कि प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ उपादानके कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों तथा उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी उसी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों। इन लक्षणोंके अनुसार वहींपर मैंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रेरकनिमित्तोंके बलसे कार्य आगे-पीछे भी किया जा सकता है तथा अनुकल उदासीन निमित्तोंका भी यदि उपादानको सहयोग प्राप्त न हो तो उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति नहीं होती है। इससे भी निर्णीत होता है कि निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर ही स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा किया जाता है
१.पठनकी योग्यताविशिष्ट शिष्यकी पठन क्रिया प्रेरकनिमित्तकारणभूत अध्यापककी सहायतासे होती है, उसकी सहायताके बिना नहीं होती । तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत प्रकाशका अभाव हो तो न अध्यापक पढ़ा सकता है और न शिष्य पढ़ सकता है । इसी प्रकार चलनेकी योग्यताविशिष्ट रेलगाड़ी प्रेरकनिमित्तकारणभूत इंजनके चलनेपर ही चलती है, उसके अभावमें नहीं चलती, तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत रेलपटरोका सहयोग प्राप्त न हो तो न इंजन चल सकता है और न रेलगाड़ी चल सकती है। इस विवेचनके अनुसार स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारकी व्यवस्था निश्चित होती है।
२. प्रेरक निमित्तकारणभूत कुम्भकार अन्य प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणोंकी सहायतापूर्वक घटरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट मिठीसे क्रमशः स्थास, कोश और कुशल पर्यायोंकी उत्पत्तिपूर्वक ही संकल्पित घटको उत्पन्न करता है, तथा आवश्यक होनेपर वह कुम्भकार उसी मिट्टीसे विवक्षित सकोरा आदिको भी उत्पन्न करता है। इतना ही नहीं, यदि दंडका आघात आदि कारण मिल जायें तो चाल कार्यके
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १४९
विनाश आदि कार्य भी उत्पन्न हो जाते हैं । इसी तरह क्रोधकर्मका उदय रहते क्रोध, मान, माया और लोभरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट जीवकी क्रोधपर्याय होते-होते यदि मान, माया या लोभ कर्मका उदय हो जावे तो क्रोध पर्याय रुककर उस जीवकी यथायोग्य मान, माया या लोभ पर्याय होने लगती है। इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था निर्णीत होती है।
३. पकनेकी योग्यता विशिष्ट आम्रफलका पाक ऋतुके अनुसार समयपर होनेका नियम है, परन्तु उस आम्रफलको यदि कृत्रिम ऊष्माका योग मिल जावे तो वह असमयमें भी पक जाता है। इसी प्रकार मरणकी योग्यताविशिष्ट संसारी जीवका मरण आयुकर्मके स्थितिबन्धके अनुसार आयुकी समाप्तिपर होना निश्चित है, परन्तु यदि विषपान आदिका योग मिल जावे तो जीव असमयमें भी मरणको प्राप्त हो जाता है । इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था सिद्ध होती है।
यहाँ 'असमय' शब्दका अर्थ नियतसमयसे भिन्न अनियतसमय ही ग्रहण करना युक्त है, समयसे भिन्न अन्य निमित्तकारणभूत पदार्थ ग्रहण करना युक्त नहीं है-जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है। इतना अवश्य है कि जिस पर्यायकी उत्पत्ति उस अनियतसमयमें होती है वह अनुकूल निमित्तकारणसापेक्ष ही होती है।
उत्तरपक्षकी दृष्टिमें स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिकी व्यवस्था :
१. समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारको ३०८ से ३३१ तककी गाथाओंकी आत्मख्याति-टीकाके पूर्वोक्त कथनके अंशभत दोनों "क्रमनियमितात्मपरिणामैः" पदोंमें विद्यमान "क्रमनियमित" शब्दका डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्लने अपनी "क्रमबद्धपर्याय" पुस्तकमें पृष्ठ १२३ पर यह स्पष्टीकरण किया है कि "क्रमनियमितशब्दमें क्रम अर्थात क्रमसे (नम्बरवार) तथा नियमित अर्थात निश्चित । जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी इसमें फेरफार नहीं हो सकता। उत्तरपक्ष भी यही मानता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि उत्तरपक्ष आत्मख्याति-टीकाके उक्त क्रमनियमित शब्दके आधारपर प्रत्येक स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिका नियत समय मानकर अपना यह मत निश्चित करता है कि सभी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्ति स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे . नहीं होती।
२. सम्पूर्ण द्रव्योंको कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें सर्वज्ञके केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध ही प्रतिभाषित होती हैं, अतः उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही मानना युक्त हैं, अन्यथा अर्थात् उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको अक्रमबद्ध अर्थात अनियतक्रमसे स्वीकार करनेपर प्रत्येक द्रव्यकी कालिक उन पर्यायोंकी केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असम्भव हो जायेगा, फलतः इस तर्कके आधारसे वह अपना यह मत निश्चित करता है कि स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति स्व-प्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे नहीं होती।
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१५० : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
निष्कर्ष
यद्यपि उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी कात्तिकेयानुप्रेक्षा व आचार्य रविषेण रचित पद्मपुराणके प्रतिपाद्य विषयको प्रमाण मानता है, तथापि ऊपर जो विवेचन किया गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ पूर्व पक्ष स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें जिस देश और जिस कालमें पर्याय उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी उस देश और उस कालको महत्व न देकर उपादान कारणभूत अन्तरंग सामग्रीके साथ निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व देता है, वहाँ उत्तरपक्ष उस स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत अन्तरंग सामग्रीको महत्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व न देकर उस देश और उस कालको महत्त्व देता है जिस देश और जिस कालमें वह पर्याय उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी।
पूर्वपक्ष स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उक्त देश और कालको महत्व न देकर जो उपादानकारणभूत अन्तरंगसामग्रीके साथ निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व देता है । उसमें हेतु यह है कि वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्तिमें उस देश और उस कालको नियामक नहीं मानता है जिस देश और जिस कालमें उस पर्यायकी उत्पत्ति हुई, हो रही है या होगी। तथा वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभत सामग्रीको उस पर्यायरूप परिणत होनेके आधारपर और निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको उपादानकी उस पर्यायरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर नियामक मानता है। इसके विपरीत उत्तरपक्ष उस स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूतअन्तरंग सामग्रीको महत्त्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्व न देकर जो उक्त देश और कालको महत्व देता है उसमें हतु यह है कि वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानको उस पर्यायरूप परिणत होनेके आधारपर नियामक मानते हुए भी निमित्तकारणभूत सामग्रीको उस पर्यायरूप परिणत न होने और उपादानकी उस पर्यायरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर मानते हुए नियामक न मानकर केवलज्ञानसे ज्ञात होनेके आधारपर उस देश और उस कालको ही नियामक मानता है जिस देश और जिस कालमें वह पर्याय उत्पन्न हई, उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी । प्रकृतमें दोनों पक्षोंके मध्य यही मतभेद है।
तथ्यका निर्णय :
स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दोनों ही प्रकारकी पर्यायोंको उत्पत्तिमें जिस देश और जिस कालमें वे पर्यायें उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही हैं या उत्पन्न होंगी उस देश और उस कालको नियामक न माना जाकर स्वप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें मात्र उपादानकारणको व स्व-परप्रत्ययपर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणके साथ निमित्तकारणको भी नियामक मानना युक्त है, क्योंकि कार्यकी उत्पत्तिकी नियामक वही वस्तु हो सकती है
१. जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि।
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अह व मरणं वा ॥ ३२१ ।। तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि।
का सक्कइ चालेदु इंदो वा अह जिणिदो वा ॥ ३२२ ।। २. प्रागेव यदवाप्तव्य येन यत्र यदा यतः ।
तत्परिप्राप्यतेऽवश्यं तेन तत्र तदा ततः ॥ 1--सर्ग ११०, श्लोक ४०।
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३ / धर्म और सिद्धान्त १५१
जो कार्यरूप परिणत हो या उस कार्यरूप परिणतिमें उसकी सहायक हो । जो वस्तु कार्य रूप परिणत होती है। उस वस्तुका कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना निर्विवाद है, परन्तु जो वस्तु उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होतो है उस वस्तुका भी उस कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना आवश्यक है, जैसा कि परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके तृतीय समुद्देशके सूत्र ६३ की प्रमेयरत्नमाला - टीकामें कहा गया है
"अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्यं प्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षा वेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशं प्रति ।"
अर्थ - कार्यकारणभावकी सिद्धि अन्वय और व्यतिरेकपर आधारित है । तथा वे ( अन्वय और व्यतिरेक) कार्यके प्रति कारणव्यापार सापेक्ष ही सिद्ध होते हैं, जिस प्रकार घटकार्यके प्रति कुम्भकारके अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध होते 1
अतएव कहा जा सकता है कि अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर जैसा कार्यकारणभाव स्वप्रत्ययकार्य और उपादानमें व स्व-परप्रत्ययकार्य और उपादानकारण तथा निमित्तकारणमें निर्णीत होता है वैसा कार्यकारणभाव उस कार्य और उक्त देश व कालमें निर्णीत नहीं होता क्योंकि कार्योत्पत्तिमें जिस प्रकार उपादानकारण कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर व प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तकारण उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी सिद्ध होते उस प्रकार उस कार्योत्पत्तिमें उक्त देश और उक्त काल कार्यरूप परिणत होने या उसमें सहायक होते रूपसे कार्यकारी सिद्ध नहीं होते । तात्पर्य यह है कि देश, कार्य और कारणभूत वस्तुओंका अवगाहक मात्र होता है व कालके आधारसे कार्य और कारणभूत वस्तुओंकी वृत्ति ( मौजूदगी ) मात्र सिद्ध होती हैं । तथा कालद्रव्यकी जो पर्यायें हैं वे उन द्रव्योंकी पर्यायोंका सोमानिर्धारण या विभाजन मात्र करती हैं । अतएव देश और कालकी कार्योत्पत्तिमें कुछ भी उपयोगिता नहीं है, केवल आवश्यकतानुसार उपादान कारण व प्रेरक और उदासीन निमित्तकारण ही कार्योत्पत्ति में उपयोगी होते हैं ।
आगममें जो यह बतलाया गया है कि क्षेत्रकी अपेक्षा भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रोंके भव्य मानव ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, हेमवत आदि क्षेत्रोंके भव्य मानव नहीं । इसी प्रकार कालकी अपेक्षा विदेह क्षेत्रके भव्य मानव मोक्ष प्राप्ति के अनुकूल स्थिति विद्यमान रहनेके कारण सर्वदा मुक्त हो सकते हैं, तथा भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके भव्य मानव उत्सर्पिणी कालके तृतीय भाग में व अवसर्पिणी कालके चतुर्थ भाग में सामान्य रूपये एवं अवशर्पिणी कालके तृतीय भागके अन्तिम हिस्सेमें व पंचम भागके प्रारम्भिक हिस्से में अपवाद रूपसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके शेष भागों में या उन भागों के किसी अन्य हिस्से में कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । सो आगमके इस कथनसे यद्यपि देश ओर कालको भो मुक्तिरूप कार्यके प्रति उदासीनरूपसे निमित्तकारणता सिद्ध होती है, परन्तु इस कथनका यही आशय है कि जीव और पुद्गल द्रव्योंके यथायोग्य मध्यम उत्कर्षायकर्षमय देश और कालकी स्थिति ही जीवको मुक्ति प्राप्त करनेमें उदासीनरूपसे निमित्तकारण सिद्ध होती है । अमूर्त होने के कारण देश और कालको मुक्तिके प्रति कारणता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि देश और कालका कार्य ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । यदि देश और काल भी जीवको मुक्ति प्राप्त करनेमें उदासीनरूपसे निमित्त - कारण होने लगें, तो ऐसी स्थिति में कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा - ३२१-२२ व पद्मपुराण सर्ग - ११० के श्लोक ४० में उनका कारणसामग्रीसे पृथक् निर्देश करना असंगत हो जायेगा ।
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१५२ सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्ययपर्यायकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे सिद्ध करनेके लिए समयसार गाथा ३०८-११ की आत्मख्याति टीकाके 'क्रमनियमित' शब्दका यह आशय ग्रहण करना है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे ( नम्बरवार ) नियमित अर्थात् निश्चित जिस समय जो पर्याव आनेवाली हो वही आयेगी, उसमें फेरबदल नहीं हो सकता ।" सो वह उसकी भ्रमबुद्धि है, क्योंकि उस टीकामें प्रयुक्त 'क्रमनियमित' शब्दका क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही ग्राह्य है, जिसका अभिप्राय है कि एकजातीय स्व-परप्रत्यय पर्यायें एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही उत्पन्न होती हैं। एकजातीय दो आदि अनेक पर्यायें युगपत् ( एकसाथ ) एकसमय में कदापि उत्पन्न नहीं होतीं । फलतः उक्त ' क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत उपर्युक्त अर्थ युक्त न होकर पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत क्रममें अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही युक्त है ।
यद्यपि कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें केवलज्ञानमें एकसाथ एकसमयमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं, परन्तु उसके आधारसे उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध स्वीकार करना युक्त नहीं है, क्योंकि उनका लिक पर्यायोंका केवलज्ञान में युगपत् ( एकसाथ ) प्रत्येक समय में क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है और उनका उपादान और प्रेरक तथा उदासीन निमित्त कारणोंके बलसे यथासंभव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूपमें उत्पन्न होना अन्य बात है। अर्थात् केवलज्ञानी जीव क्रम अथवा अक्रमसे उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंको क्रमबद्धरूपमें जानता है। फलतः स्वन्परप्रत्यय पर्यायोंके विषय में यदि उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो यही कहा जा सकता है कि उनकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणसापेक्ष होनेसे क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप सिद्ध होती है तथा ज्ञप्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि उनका प्रतिभासन केवलज्ञानमें युगपत् ( एकसाथ ) एक समय में क्रमबद्ध ही होता है ।
स्व-परप्रत्यय पर्यायोंके विषयमें उत्पत्ति और ज्ञप्तिका यह अन्तर उत्तरपक्षके प्रमुख प्रतिनिधि पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्यने जैन तत्व-मीमांसा (प्रथम संस्करण) पृष्ठ २९१ पर इस प्रकार प्रकट किया है
" यद्यपि हम मानते हैं कि केवलज्ञानको सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाला मानकर भी क्रमबद्ध पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आलम्बनसे न करके कार्य-कारणपरम्पराको ध्यान में रखकर ही की जाना चाहिए।"
इस प्रकार कार्य कारणभावके आधारपर होनेवाली स्व- परप्रत्यथ पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध तथा केवलज्ञानमें होनेवाली उनकी जप्तिको मात्र क्रमबद्ध मान्य करने में पूर्वपक्षके समान उत्तरपक्षको भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए ।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि केवलज्ञानमें ही नहीं, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें भी अमुक कार्य अमुक कारणोंसे अमुक देशमें अमुक कालमें अमुकरूपसे उत्पन्न हुआ, उत्पन्न हो रहा है या उत्पन्न होगा ऐसा क्रमबद्ध प्रतिभासन यथायोग्य सीमामें होता है, परन्तु यह अवश्य ध्यातव्य है कि चाहे केवलज्ञान हो अथवा चाहे मतिज्ञान, अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञान हो, ये सभी ज्ञान अपने द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण करनेमें अक्षम ही हैं । स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है-
नेत्रइन्द्रियसे उत्पन्न हुए चाक्षुष-मतिज्ञानसे घटका ज्ञान तो होता है परन्तु वह घट है ऐसा विश्लेषण
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १५३
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उस मतिज्ञानसे नहीं होता, तथा कर्णेन्द्रियसे उत्पन्न हुए श्रावण - मतिज्ञानसे घटशब्दका ज्ञान तो होता है, परन्तु घटशब्दका अर्थ घटरूप पदार्थ है, यह विश्लेषण उस मतिज्ञानसे नहीं होता। यही स्थिति अन्य इंद्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानकी एवं अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी जान लेना चाहिए। इसमें हेतु यह है कि मति आदि उक्त चारों ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण वितर्कात्मिक ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। जबकि वे चारों ज्ञान वितर्कात्मक नहीं होते । यतः श्रुनज्ञान वितर्कात्मिक होता है, अतः मति आदि उक्त ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है । यतः मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानी जीवों में श्रुतज्ञानका सद्भाव नियमसे रहता है, अतः मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीव इन ज्ञानोंसे प्रतिभाषित पदार्थोंका श्रुतज्ञानके आधारपर विश्लेषण भी करते हैं पर जो केवलज्ञानी जीव हैं उनमें केवलज्ञानके साथ यतः श्रुतज्ञानका सद्भाव नहीं रहता है, अतः केवलज्ञानी जीव द्वारा केवलज्ञानमे प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण किया जाना सम्भव नहीं है। इतना अवश्य है कि केवलज्ञानी तीर्थंकर जीवकी भव्य जीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे जो निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरती है उसके अर्थको गणधर अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतज्ञानशक्तिके आधारपर ग्रहणकर उस आधारसे अक्षरात्मक श्रुतका निर्माण करते हैं, तथा इस अक्षरात्मक थुतका अध्ययन करके अन्य विशेष श्रुतज्ञान शक्तिके धारक महापुरुष भी ग्रन्थोंका निर्माण करते हैं।
वर्तमानमें भी तीर्थंकर महावीरने केवलज्ञान द्वारा विश्वके सभी पदार्थोंको और उनकी कालिक समस्त पर्यायोंको युगपत् एक समय में जब क्रमबद्ध जान लिया तब भव्यजीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे उनकी निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरी जिसके अर्थको गोतम गणधरने अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतशक्तिके बलसे ग्रहण किया और उन्होंने अक्षरात्मक चुतकी रचना की। उसी प्रकार अपनी श्रुतज्ञान शक्तिके बलसे उसका अध्ययन करके अन्य आचार्योंने भो ग्रन्थोंका निर्माण किया। इस तरह वह श्रुत-परम्परा आजतक चल रही है ।
इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्य कारणभावका विश्लेषण वितर्फात्मक श्रुतज्ञान द्वारा ही होता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा नहीं, क्योंकि इन ज्ञानों में वितकत्मकताका अभाव है ।
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जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंका एक साथ सद्भाव रहता है तथा किसी-किसी जीव में मति - ज्ञान और श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मन:पर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान दोनोंका सद्भाव भी आगम द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास हो जाता है तब उसमें पहलेसे यथायोग्यरूप में विद्यमान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानका अभाव हो जाता है, क्योंकि आगमें क्षायिक केवलज्ञानका जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उससे ज्ञात होता है कि आायिक केवलज्ञानके साथ जीवमें मतिज्ञान, धुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि वे क्षायोपशमिक हैं तथा केवलज्ञानका विकास जीवमें समस्त ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर हो होता है, केवलज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर नहीं होता ।
इसप्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव होनेसे मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीव तो श्रुतज्ञान के बलसे कार्य कारणभावका विश्लेषण करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव निश्चित हो जानेसे केवलज्ञानी जीव कार्यकारणभावका विश्लेषण नहीं २०
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१५४ सरस्वती वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्य
करते हैं। एक बात और है कि मतिज्ञानी अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य नहीं होते, अतः उन्हें तो कार्योंत्पत्ति के लिए कार्य कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य है, परन्तु केवलज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य होते हैं, अतः उन्हें कार्योत्पत्ति के अनावश्यक हो जानेसे उसमें हेतुभूत कार्यकारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है ।
पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्तजीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ विद्यमान हैं उन सबमें प्रतिसमय स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्ययके भेदसे दोनों प्रकार के परिणमन होते रहते हैं व उनमेंसे जो स्व-परप्रत्यय परिणमन हैं वे प्रेरक और उदासीन निमित्तों के सहयोगपूर्वक ही होते हैं एवं उन परिणमनोंकी उत्पत्तिके लिए पदार्थोंको प्रेरक और उदासीन निमित्तों का सहयोग प्रायः निसर्गतः ही प्राप्त रहता है । परन्तु किन्हीं - किन्हीं उदासीन निमितोंका सहयोग आवश्यकतानुसार जीवोके प्रयत्नपूर्वक भी होता है चलनक्रियामें प्रेरक निमित्तभूत इंजनका और उदासीन निमित्तभूत रेलपटरीका जो वह जीवोंके प्रयत्नपूर्वक ही होता है।
यद्यपि कार्तिकेयानुपेक्षाकी गाधा- ३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग - ११० के श्लोक-४० और अन्य आगमवचनोंसे भी यह ज्ञात होता है कि पदार्थोंमें जो परिणमन होते हैं वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में जैसे प्रतिभासित होते हैं वैसे ही होते हैं, परन्तु इस कथनका यह आशय नहीं ग्रहण करना चाहिए कि उन परिणमनों की उत्पत्ति में केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें होनेवाला वह प्रतिभासन कारण होता है, क्योंकि केवलज्ञानी जीव कार्य कारणभावके आधारपर उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होने वाली पर्यायों को ही जानते हैं । अतएव केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें होनेवाले प्रतिभासनके अनुसार उन पर्यायोंकी उत्पत्ति स्वीकार करना गलत है। फलतः प्रकृत विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य जो मतभेद है वह इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष पदार्थोंके सभी परिणमनोंकी उत्पत्तिमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता स्वीकार करता है वहां पूर्वपक्ष उन परिणकनोंकी उत्पत्ति में श्रुतज्ञानसे ज्ञात कार्यकारणभावके आधारपर यथासम्भव क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमवद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही बातोंको स्वीकार करता है। अर्थात् पूर्वपक्षकी मान्यता है कि स्वप्रत्यय परिणमन तो प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगके बिना उपादानकारणजन्य होनेसे क्रमबद्ध ही होते है तथा स्व-परप्रत्यय परिणमन प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगपूर्वक उपादानकारणजन्य होनेसे प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी प्राप्तिके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप होते हैं पदायोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिके विषयमें दोनों पक्षोंकी परस्परविरोधी इन मान्यताओंमेसे कौन मान्यता युक्त और कौन मान्यता अयुक्त है, इसका निर्णय किया जाता है
पदार्थोंको उन प्रेरक और जैसे रेलगाड़ीको उसकी सहयोग प्राप्त होता है
१. यद्यपि कार्तिकेयानुप्राको गाथा - ३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक-४० एवं अन्य आगमवचनोंके आधारपर पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही पदार्थोंके परिणमनोंके विषय में यह स्वीकार करते हैं कि वे परिणमन जैसे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें प्रतिभासित होते है वैसे ही होते हैं। पर ध्यान रहे कि केवलज्ञानी जोव के केवलज्ञानमें होनेवाला पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमनोंका वह प्रतिभासन उनको उत्पत्तिका नियामक नहीं होता है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमन स्वकीय कार्य-कारणभावके आधारपर जिस रूपमें उत्पन्न हुए, उत्पन्न हो रहे हैं और
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आगे उत्पन्न होंगे उस रूपमें हो वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं। इससे निर्णीत होता है कि उन परिणमनोंकी उत्पत्तिका नियामक श्रुतज्ञानपर आधारित कार्य-कारणभाव ही होता है, केवलज्ञानमें होनेवाला उनका प्रतिभासन नहीं फलतः कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा ३२१-२२ के "जिस पदार्थका जिस देशमें और जिस कालमें जिस विधानसे जैसा परिणमन जिनेन्द्र भगवानने ज्ञात किया है उस पदार्थका उस देश में और उस काल में उस विधानसे वैसा ही परिणमन होता है ।" इस कथनका व पद्मपुराण सर्ग - ११० के श्लोक ४० के "जिस जीवके द्वारा जिस देशमें और जिस कालमें जिस कारणसे जैसा प्राप्तव्य है उस जीवका उस देशमें और उस कालमें उस कारणसे वैसा ही प्राप्त होता है" इस कथनका एवं भैया भगवतीदासके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे" इस कथनका मात्र यही प्रयोजन ग्रहण करना उचित हैं कि जीव विवक्षित पदार्थ के विवक्षित परिणमनको सम्पन्नता के लिए तदनुकूल कारणोंको जुटानेका जो प्रयत्न (पुरुषार्थ ) उसको सफलतामें यह अहंकार न करे व असफलता में हताश होकर अकर्मण्य न हो जावे। इस प्रकार उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको पूर्वोक्त प्रकार कार्यकारणभाव के आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। एक बात और है कि सभी पदार्थ जब अनादिसिद्ध हैं तो उनके परिणमन भी अनादिकालसे होते आये हैं, जबकि केवलज्ञानकी सादिता आगमसिद्ध होनेसे दोनों ही पक्ष स्वीकार करते हैं । फलतः पदार्थों के परिणमनोंको उत्पत्ति में उन परिणमनोंका केवलज्ञान में प्रतिभाषित होना कार्यकारी सिद्ध नहीं होता। इस बातको तृतीय दीरकी समीक्षामें विस्तार से स्पष्ट किया जायगा ।
२. पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्ति के लिए कार्य कारणभावका विश्लेषण धुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है, केवलज्ञान द्वारा नहीं, अतः केवलज्ञानी जीव एक ती श्रुतज्ञानके अभाव में कार्य-कारणभावका विश्लेषण कर नहीं सकता है, दूसरे उसके कृतकृत्य हो जानेसे कार्योत्पत्तिके अनावश्यक हो जानेके कारण उसे कार्य कारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है । यतः मतिज्ञानी अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीव एक तो श्रुतज्ञानके सद्भाव में कार्यकारण भावका विश्लेषण करते हैं, दूसरे कृतकृत्य न होनेसे उन्हें कार्योत्पत्तिके लिए कार्य कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य भी है। अतएव मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनः पर्यवज्ञानी जीव विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति के लिए श्रुतज्ञान द्वारा कार्य कारणभावका विश्लेषण करके ही कारणोंके जुटाने का प्रयत्न करते हैं। इसके अलावा यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मतिज्ञानी अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्ति के लिए प्रयत्न करनेके अवसरपर जिस प्रकार कार्य-कारणभावपर दृष्टि रखना आवश्यक है उस प्रकार केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानको विषयतापर दृष्टि रखना आवश्यक नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि उत्तरपक्षद्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानकी विषयतापर आधारित क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभाव के आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है ।
यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जीव द्वारा कार्योत्पत्ति के लिए भुवज्ञानके वलसे किया गया कार्यकारणभावका निर्णय यथायोग्य सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकारका हो सकता है, अतः वह निर्णय यदि सम्यक् हो तो उसके आधारसे कार्योंत्पत्तिके लिए किया गया जीवका प्रयत्न सफल होता है और यदि मिथ्या हो तो उसके आधारके कार्योत्पत्ति के लिए किया गया जीवका प्रयत्न असफल होता है। इसके अतिरिक्त जीव यदि
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१५६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
विवेकी है तो अपने प्रयत्नके सफल हो जानेपर वह अहंकार नहीं करता है और असफल हो जानेपर हताश होकर अकर्मण्य भी नहीं होता है। परन्तु जीव यदि अविवेको है तो वह अपने प्रयत्नके सफल होनेपर अहंकार करने लगता है व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य भी हो जाता है।
३. मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्तिके अवसरपर एक तो उसके विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में क्या प्रतिभासित हो रहा है ? इसकी जानकारी (ज्ञान) होनेका कोई नियम नहीं है। वे तो मात्र 'जो जो देखी वीतारगने सो सो होसी वीरा रे" यह विकल्प ही कर सकते हैं। दूसरे. कार्योत्पत्तिके अवसर पर कदाचित किसी जीवको कार्योत्पत्ति के विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें जो प्रतिभासित हो रहा है उसका ज्ञान हो भी जावे, परन्तु वह जीव यदि अविवेकी है तो उस अविवेकके आधारपर वह अपना प्रयत्न विपरीत करनेको भी उद्यत हो सकता है। जैसे मारीचको तीर्थकर ऋषभदेवकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे जब यह ज्ञात हुआ कि वह भी तीर्थकर होगा, तो 'नान्यथावादिनो जिनाः' ऐसा अटल विश्वास करके वह कुमार्गगामी बनकर नानाप्रकारको कुत्सित योनियों में बहुत काल तक भ्रमण करता रहा
और जब वह सुबोधके आधारपर कुमार्गको त्यागकर सन्मार्गका पथिक बना तभी वह महावीरके रूपमें अन्तिम तीर्थंकर बन सका। इस विषयमें उत्तरपक्षका "मारीचको अन्तिम तीर्थंकर महावीर बनना था, इसलिए वह कुमार्गगामी बना ।" यह कथन तर्कपूर्ण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वह सन्मार्गपर चलकर उत्तम योनियोंमें भ्रमण करके भी अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर बन सकता था। इससे निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त नहीं है अपितु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है।
४. श्रीकानजी स्वामीने तो भैया भगवतीदासजीके 'जो-जो देखी वीतरागने सो-सो होसी वीरा रे' इस वचनपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिकी क्रमबद्धतामें अटूट विश्वास रखकर यहाँ तक मान लिया कि कार्योत्पत्तिके लिये किया जानेवाला जीवोंका प्रयत्न (पुरुषार्थ) भी उसी क्रमबद्धताका अंग है । इसका परिणाम यह हुआ कि जब उन्हें शारीरिक व्याधि हुई, तो वे अपनेको महान् अध्यात्ममार्गी व अध्यात्मके अभूतपूर्व उपदेष्टा मानते हुए भी राजसी वैभवमें लिप्त रहनेके कारण उस व्याधिको सहन नहीं कर सके और भैया भगवतीदासजोके उक्त वचनके आधारपर पुरुषार्थहीन होकर वे न केवल इस मार्गको भूल गये, अपितु भक्तोंकी प्रार्थना.और डाक्टरोंके सुझावोंकी उपेक्षा करके उस व्याधिसे छुटकारा पानेके लिए बम्बई जाकर जसलोक अस्पतालमें प्रविष्ट हुए एवं वहीं कालकवलित हो गये । इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवोंकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है, किन्तु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधरपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है।
५. माना कि तीर्थंकर नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे श्रोताओंको ज्ञात हुआ कि बारह वर्ष व्यतीत होने पर द्वारिकापुरी भस्म हो जायेगी और उसे भस्म न होने देनेके लिए लोगों द्वारा लाख करनेपर भी वह भस्म हो गयी, परन्तु इसमें ज्ञातव्य यह है कि द्वारिकापुरी तदनुरूप कारणोंके मिलनेपर ही भस्म हई वह तीर्थकर नेमिनाथके केवलज्ञान में होनेवाले प्रतिभासनके बलपर अथवा भगवान नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके बलपर नहीं भस्म हुई। इसी प्रकार केवलज्ञानी जीवोंके समान मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १५७
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंकी भविष्यवाणियाँ भी यथायोग्य सत्य हो सकती हैं या होती हैं, परन्तु वहाँ भी कार्य तो श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर ही सम्पन्न होते है । मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके यथायोग्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके बलपर अथवा उनकी भविष्यवाणियोंके बलपर नहीं । इस विवेचनसे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणामोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है।
६. उत्तरपक्षकी मान्यता है कि भवितव्यता (भविष्यमें होनेवाली कार्योत्पत्ति) के अनुसार ही जीवको बुद्धि हो जाती है। उसका पुरुषार्थ भी उसी भवितव्यताके अनुसार होता है और अन्य सहायक कारण भी उसी भवितव्यताके आधारपर प्राप्त होते हैं
"तादृशी जायते बुद्धिय॑वमायश्च तादृशः ।
सहायस्तादृशाः सन्ति यादृशी भविव्यता ॥" । सो उसकी यह मान्यता भी मिथ्या है क्योंकि वह पक्ष भवितव्यताके अनुसार होनेवाली कार्योत्पत्तिमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय (पुरुषार्थ) और अन्य सहायक कारणोंकी प्राप्ति भी उसी भवितव्यताके अनुसार मानता है। फलतः ऐसी अवस्थामें उक्त बुद्धि, पुरुषार्थ और सहायक कारणोंके बिना भी कार्योत्पत्तिके होनेका प्रसंग उपस्थित होता है। इसपर यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि वह प्रसंग उसको इष्ट है, तो उसका ऐसा कहना आप्तमीमांसाकी कारिका' ८८, ८९, ९० और ९१ के कथनके विरुद्ध है। इस बातको दार्शनिक विद्वान् अच्छी तरह समझ सकते हैं।
___ तात्पर्य यह है कि आप्तमीमांसाकी उक्त कारिकाओंके अनुसार भवितव्यता (भविष्यमें होनेवालो) कार्योत्पत्ति), जिसे वर्तमानमें कार्योत्पत्तिको योग्यता, अदष्ट या दैव कहा जाता है-के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं है। तथा इससे होनेवालो कार्योत्पति (उसको कार्यरूप परिणति) जीवकी बुद्धि (श्रुतज्ञान और व्यवसाय (परुषार्थ) तथा अन्य सहायक कारणोंका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है, अतः भवितव्यताको उक्त बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक कारणों को प्राप्तिमें कारण नहीं माना जा सकता है । फलतः उक्त कारिकाओंके आधारपर यही निर्णीत होता है कि पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता (कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता) हो उसे बद्धि. परुषार्थ तथा अन्य साधनसामग्रीका योग प्राप्त हो जावे, तो ही विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति होती है । तथा पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता विद्यमान रहनेपर भी यदि बुद्धि, व्यवसाय और अन्य १. दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् ।
दैवतश्चेदविर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ।।८८।। पौरुषादेवार्थसिद्धिश्रचेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाच्चेदमोघ स्यात सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।।८९।। विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्याय विद्विषाम् । अवाच्यतकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥९०॥ अबुद्धिपूपिआयामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्ट स्वपौरुषात ॥९१॥
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१५८ सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
साधनसामग्रीका योग न प्राप्त हो तो विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि भवितव्यता के अनुसार जो कार्यकी उत्पत्ति होती है वह बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक सामग्रीकी अपेक्षाके बिना ही होती है, तो उसकी यह स्वीकृति एक तो आप्तमीमांसाकी उपर्युक्त कारिकाओंके विरुद्ध है और दूसरे वह अयुक्त भी है, क्योंकि कार्योत्पत्तिके विषय में कारणसामग्रीकी अपेक्षा कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा ३२१-२२ में व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० में भी स्वीकार की गयी है। संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंके अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क से भी ऐसा ही निर्णीत होता है ।
निष्पत्ति
१. समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकाका जो कथन पूर्वमें उद्धृत किया गया है उसमें निर्दिष्ट "क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्षने जो यह अर्थ समझा है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे ( नम्वरवार) तथा नियमित अर्थात् निश्चित जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी, उसमें फेर फार नहीं हो सकता ।" उसे मैं उसकी भ्रमबुद्धि का परिणाम मानता हूँ, क्योंकि प्रकरणको देखते हुए उस 'क्रमनियमित' शब्दका क्रम अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् निश्चित अर्थ ही संगत है। भाव यह है कि प्रत्येक पदार्थकी एकजातीय नाना पर्यायोंकी उत्पत्ति एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही होती है, युगपत् अर्थात् एकसाथ एक ही समयमें नहीं होती । इस बातको पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
२. केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके अनुसार निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धता के आधारपर उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध मानना युक्त नहीं है, क्योंकि उन पर्यायों की उत्पत्ति श्रुतज्ञानके आधारपर निणांत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों प्रकारसे होती है तथा श्रुतज्ञानके दलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध रूप से उत्पन्न हुई उत्पन्न हो रहीं और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्याय केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं । इस विषयको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
३. कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा ३२१-२२ व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० तथा अन्य आगमवाक्यों में पर्यायोंकी जिस क्रमबद्धताका विवेचन किया गया है उसका उपयोग पर्यायोंकी उत्पत्तिके विषयमें नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका उपयोग कार्योलत्तिके लिए प्रयत्नशील जीवोंको अपने प्रयत्न में सफल होनेपर अहंकार न करने व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य न बननेके लिए करना ही उचित है । यदि कोई व्यक्ति उसका उसके अतिरिक्त अन्य उपयोग करना चाहता है तो उसका मारीच व कांजीस्वामी के
समान अकल्याण होना संभव है। इस विवेचनको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
इस प्रकार प्रकृत विषयके संबंध में अबतक जो विवेचन किया गया है उससे निर्णीत होता है कि पदार्थोंकी श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्धरूपसे निष्पन्न हुई, निष्पन्न हो रहीं और आगे निष्पन्न होने वाली स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान द्वारा होने वाली शप्तिको ही क्रमबद्ध स्वीकार करना उचित है। उनकी उत्पत्तिको तो श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य करना ही युक्त और कल्याणकारी हैं ।
मुझे इस बातका आश्चर्य है कि श्री कानजोस्वामीने अनुभव इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क विरुद्ध आगमके अभिप्रायको ग्रहणकर केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धताका
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३ / धर्म और सिद्धान्त १५९
श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्य कारणभावपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिमें उपयोग किया है । मुझे इस बात - का भी आश्चर्य है कि सोनगढ़ सिद्धान्तवादी वर्ग भी उनके उपदेशसे प्रभावित होकर उनकी अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्कके विरुद्ध मान्यताका अनुसरण कर रहा है। मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसी और डॉ० हुकुमचंद्र भारिल्ल जयपुरने उक्त मान्यताको पुष्ट किया है । मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि डॉ हुकमचन्द्र भारिल्लकी क्रमबद्ध पर्याय' पुस्तक में निर्दिष्ट आचार्यो मुनिराजों, व्रतियों, विद्वानों और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओंने आगम के अभिप्रायको समझने की चेष्टा न करके उनकी मान्यताका समर्थन किया और मुझे इस बात का भी आश्चर्य है कि कतिपय अन्य साधु, व्रती, विद्वान् और सामान्य जन भी कार्योंत्पत्तिके विषयमें उनकी (कानजीस्वामीको ) उस मान्यताको स्वीकार करने के लिए उत्सुक हैं । ऐसी विचित्र दशा देखते हुए मेरी दृष्टि आगमके उस वचनपर जाती है जिसमें यह बतलाया गया है कि सिद्धान्तग्रन्थोंका पठन-पाठन गृहस्थोंके लिए उचित नहीं है । वर्तमान में तो आगमका वह वचन कतिपय साधु-संतों पर भी लागू होता है । वास्तव में सिद्धान्तका अनर्थ और दुरुपयोग रोकनेसे लिए ही आचार्योंने बड़ी सूझ-बूझसे सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययनका सर्वसाधारणके लिए निषेध किया है ।
मुझे आशा है कि सोनगढ़ सिद्धान्तवादी सभी जन मेरे इस विवेचनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करके तथ्यका निर्णय करेंगे । तथा आगमके अभिप्रायको समझने में लापरवाह एवं संशय में पड़े हुए पुरातन सिद्धान्तवादी सभीजन भी उत्पत्तिकी अपेक्षा आगम द्वारा स्वीकृत व अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्कसे सिद्ध स्वप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्तिको क्रमबद्ध और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको निमित्तोंके समागमके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध ही मान्य करेंगे |
केवलज्ञानको विषयमर्यादा
समयसार गाथा १०३ में बतलाया गया है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके साथ संयुक्त या बद्ध होनेपर भी वे दोनों द्रव्य कभी तन्मयरूपसे एकताको प्राप्त नहीं होते । और न एक-दूसरे द्रव्यके गुण-धर्म ही एकदूसरे द्रव्य में संक्रमित होते हैं
हि गुणे दव्वे सो अष्णम्हि ण संकर्मादि दव्वे ।
पंचास्तिकायकी गाथा ७ में भी बतलाया गया है कि सभी द्रव्य परस्परमें प्रविष्ट होते हुए भी, परस्परको अवगाहित करते हुए भी और परस्पर ( दूध और जलकी तरह) मिलकर रहते हुए भी कभी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं
अण्णोष्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगं सहावं ण विजर्हति ॥
तात्पर्य यह है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात् काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं वे सभी यथायोग्य परस्पर संयुक्त होकर ही रह रहे हैं तथा जोव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध होकर भी रह रहे हैं । तथापि सभी द्रव्य अपने-अपने द्रव्यरूप, गुणरूप और पर्यायरूप स्वभावमें रह रहे हैं और रहते जावेंगे। कोई भी पदार्थं संयुक्त या बद्ध दशामें दूसरे पदार्थ की द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपताको प्राप्त नहीं होता, न हो सकता है। इतना अवश्य है कि सभी पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त या बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना स्व- परप्रत्यय परिणमन करते
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१६० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
रहते हैं। जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल तो उस बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना-अपना स्व-परप्रत्यय परिणमन विकृत भी करते रहते हैं। समयसार गाथा ८० में कहा भी है कि जीवके परिणामोंके निमित्त (सहयोग) से पुदगल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गलकर्मके निमित्त (सहयोग) से जीव भी तथैव (रागादिभावकर्मरूप) परिणत होता हैं
जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमई ॥ समयसार गाथा ८१ में यह भी कहा गया है कि बद्ध दशामें जीव पुद्गलकर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और पुद्गलकर्म जीवगुणरूप परिणत नहीं होता। परस्परके निमित्तसे (सहयोगसे) दोनोंका अपनाअपना परिणमन अश्य होता है--
ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जोवो कम्मं तहेव जीवगुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहणंपि ।। यह वस्तुस्थिति है । इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि उपर्युक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त होकर रह रहे हैं व जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल अनादिकालसे परस्पर बद्ध होकर भी रहते आये हैं, तथापि वे पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें भी सतत अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही विद्यमान हैं। जैसे संयुक्त दशामें आकाशकी अपनी द्रव्यरूपता नियत अनन्तप्रदेशात्मक हो है। धर्मको, अधर्मकी और सभी जीवोंमेंसे प्रत्येक जीवकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता नियत असंख्यातप्रदेशात्मक ही है। तथा समस्त कालोंमेंसे प्रत्येक कालकी व समस्त पदगलोंमेंसे प्रत्येक पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता एकप्रदेशात्मक ही है । ऐसी ही स्थिति संयुक्त दशामें उन पदार्थोकी अपनी-अपनी गुणरूपता और स्वप्रत्यय एवं स्व-परप्रत्ययपर्यायरूपताकी भी नियत है तथा बददशामें जीव और पुद्गलकी व पुद्गल और पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, व स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताकी भी ऐसी ही स्थिति नियत है । यही कारण है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय (पद्य एक) में बतलाया गया है कि सभी पदार्थ केवलज्ञानमें दर्पणतलके समान अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, और स्वप्रत्यय व स्वपरप्रत्ययपर्यायरूपतासहित प्रतिसमय युगपत् पृथक्-पृथक् ही प्रतिफलित हो रहे हैं
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः ।
दपर्णतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिक यत्र । जो बात इस पद्यमें बतलाई गई है वही बात तत्त्वार्थसूत्रके 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' (१-२९) सूत्रमें भी बतलाई गई है।
यह विवेचन हमें इस निष्कर्षपर पहुंचा देता है कि उक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी जब केवलज्ञानमें सतत् अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे हैं तो उस स्थितिमें उन पदार्थोंको संयुक्त दशाका व जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गलकी बद्धदशाका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि समयसार, गाथा १०३, पंचास्तिकाय, गाथा ७ और समयसार, गाथा ८१ के अनुसार उक्त पदार्थोंका परस्पर पृथक्कपना वास्तविक सिद्ध होता है व उनकी यथायोग्य संयुक्त व बद्ध दशा
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३ | धर्म और सिद्धान्त : १६१
अवास्तविक सिद्ध होती है। इसलिए केवलज्ञानमें जब प्रतिक्षण पदार्थों की वास्तविक पृथक-पृथकरूपताका प्रतिभासन हो रहा है तो उसमें उनकी अवास्तविक यथायोग्य परस्पर संयुक्त दशाका या बद्ध दशाका प्रतिभासन होना संभव नहीं रह जाता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमेंसे मतिज्ञान हो ऐसा ज्ञान है जिसमें सीपको वास्तविक सोपरूपताका और आस्तविक रजतरूपताका प्रतिभासन सम्भव है। परन्तु उस मतिज्ञान में भी जब सीपका वास्तविक सीपरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है और उसमें जब सीपको अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी वास्तविक सोपरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है।
यदि कहा जाये कि सीपकी रजतरूपता जैसी अवास्तविक है वैसी अवास्तविक पदार्थोंकी संयुक्त दशा या बद्ध दशा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञानमें सोपकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन मिथ्या माना जाता है उस प्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें होनेवाले पदार्थों की संयुक्त दशा या बद्ध दशाके प्रतिभासनको मिथ्या नहीं माना जाता है, इसलिए केवलज्ञानके विषयमें मतिज्ञानका उपर्युक्त उदाहरण अयुक्त है, तो इसका समाधान यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें प्रतिभासित होनेवाली पदार्थोंकी संयुक्तदशा या बद्धदशा नानापदार्थनिष्ठ होनेसे उपचरित धर्मके रूप में उपचारसे ही वास्तविक है । एकपदार्थनिष्ठ स्वरूपदृष्टिसे तो वह मिथ्या ही है । अतएव प्रत्येक पदार्थके पृकक्-पृथक् स्वरूपका प्रतिभासन करनेवाले केवलज्ञान में उसके प्रतिभासनका निषेध किया गया है, क्योंकि केवलज्ञानमें सतत प्रत्येक पदार्थके पृथक्-पृथक् तदात्मक स्वरूपका हो प्रतिभासन होता है। इस विवेचनसे यह भी सिद्ध होता है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन केवलज्ञानमें होनेवाले पदार्थके प्रतिभासनसे विलक्षण ही होता है । इस विलक्षणताका स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है
१-यतः जीवमें केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर ही प्रकट होता है, अतः केवलज्ञानमें समस्त पदार्थों की एक-एक क्षणवर्ती स्थितिके प्रतिभासनकी क्षमता होनेसे उसमें सभी पदार्थों की एक-एक क्षणवर्ती स्थितिका पृथक्-पृथक् प्रतिभासन होता है। यतः जीवमें मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है और मनःपर्ययज्ञान मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अतः तोनों ज्ञानोंमें अपने-अपने विषयभूत पदार्थकी अन्तर्मुहर्तकालव” नाना स्थितियोंका अखण्ड रूपसे प्रतिभासन होने की क्षमता होनेसे उस पदार्थकी अन्तर्मुहर्तकालवर्ती नाना स्थितियोंका ही अखण्डरूपसे प्रतिभासन होता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ उक्त प्रकार क्षायिक होनेसे केबलज्ञानमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन क्षण-क्षणमें परिवर्तनशील है वहाँ उक्त प्रकार क्षायोपशमिक होनेसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान ओर मनःपर्यज्ञान इन तीनोंमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन अन्तमुहर्तकालमें ही परिवर्तनशील है। एक-एक क्षण में परिवर्तनशील नहीं है।
२-यतः जीवमें केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः उसमें समस्त पदार्थोंका प्रतिभासन मात्र स्व-सापेक्ष होनेसे असीम होता है। यह बात तत्त्वार्थसत्रके "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" (१-२९) सूत्रसे जानी जाती है। इसके विपरीत जीवमें मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है अतः उसमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन पौद्गलिक स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र, कर्ण और मनके अवलम्बनपूर्वक होनेसे मर्यादित होता है। यह बात तत्त्वार्थसूत्रके “मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येध्वसर्वपर्यायेषु' (१-२६) सूत्रसे जानी जाती है। तथा जीवमें अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर व मनःपर्ययज्ञान मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं । अतः इनमें होनेवाला
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१६२ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
पदार्थका प्रतिभासन स्वसापेक्ष होनेपर भी एक तो मात्र रूपी पदार्थका होता है। दूसरे वह प्रतिभासन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए होता है । यह बात तत्त्वार्थ सूत्र के "रूपिष्वधेः " (१-२७) व " तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य " ( १-२८) दोनों सूत्रोंसे जानी जाती है ।
३ – यतः जीवमें केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः निराबाघ होनेसे उसमें संयुक्त या बद्धपदार्थोंका संयुक्त या बद्धरूपसे प्रतिभासन न होकर पृथक्-पृथक् ही होता है जबकि जीव में मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान उस उस ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं, अतः बाधासहित होनेसे उनमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन तो संयुक्त या बद्धरूपमें ही होता हैव असंयुक्त व अबद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन असंयुक्त या अबद्ध रूप में ( पृथक्-पृथक् रूपमें) ही होता है । जैसे इन तीनों ज्ञानोंमें दूध और जलके मिश्रण में तो दूध और जलका मिश्रितरूपसे ही प्रतिभासन होता है और पृथक्-पृथक् रूपमें विद्यमान दूध और जलका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् ही होता है । इसी तरह अवधिज्ञान और मनः पर्यज्ञानमें दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त अणुओंके स्कन्धरूपको प्राप्त अणुओंका प्रतिभासन पिण्डरूपसे ही होता है व पृथक्-पृथक् रूपमें विद्यमान अणुओंका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् रूपसे ही होता है।
इससे निर्णीत होता है कि जहाँ केवलज्ञानमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें संयुक्त या बद्धरूपसे न होकर पृथक् पृथक रूपसे होता है वहाँ मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें अपने-अपने विषयभूत संयुक्त और बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् रूप से न होकर संयुक्त और बद्धरूपसे ही होता है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारके उपयोगप्रकरण में सभी क्षायोपशमिक ज्ञानोंको विभावज्ञानको व क्षायिकपनेको प्राप्त केवलज्ञानको स्वभावज्ञानको संज्ञा दी है। इस विषयको मैंने जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षाके प्रथम भाग में प्रश्नोत्तर - ४ के प्रथम दौरकी समीक्षामें स्पष्ट किया है ।
पूर्वमें यह बात बतलायी जा चुकी है कि जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एकसाथ अनादिकाल से विद्यमान हैं । तथा किसी-किसी जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मन:पर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान दोनोंका भी विकास हो जाता है । परन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास होता है तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानका अभाव हो जाता है । इससे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं
१. जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
rasगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणंति ॥ १०॥ केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावणाणंति । सण्णाणिदरविय विहावणाणं हवे दुविहं ॥ ११ ॥ सणाणं उभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं दियाईभेददो चेव ॥१२॥ तह दंसण उवओगी ससहावेदर - वियप्पदो दुविहो ।
केवल मंदिर हियं असहायं तं सहावमिंदि भणिदं ।। १३ ।।
चक्खू अचक्खू ओही तिष्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति । गाथा १४ का पूर्वार्थं ।
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १६३
.. १-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव ता मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानसे ज्ञात पदार्थका उस श्रुतज्ञानके बलसे विश्लेषण भी करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेसे केवलज्ञानी जीव केवलज्ञानसे ज्ञात पदार्थका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं।
२-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव श्रुतज्ञानके बलसे एक ही पदार्थमें गुण-गुणीभावका भेद करके गुण और
धाराधेयभावका विश्लेषण करते हैं. तथा एक ही पदार्थमें भेदके बलपर उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावका भी विश्लेषण करते हैं। इतना ही नहीं, तादाम्यसम्बन्धाश्रित अन्य सभी प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते है, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव एक ही पदार्थमें भेदकी अवास्तविकताके कारण उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं । • ३-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे नाना पदार्थों में भी आधाराधेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव आदि संयोगसम्बन्धाश्रित सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करते हैं। परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव नाना पदार्थों में संयोगसम्बन्धाश्रित उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं।
४-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे अर्थ और शब्दमें वाच्य-वाचकभाव व पदार्थ व ज्ञानमें ज्ञेय-ज्ञायकभाव आदि विविध प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव इस प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं।
इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका कार्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा पदार्थों को जाननेका तथा श्रुतज्ञानके द्वारा विविध प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करना है वहाँ केवलज्ञानी जीवका कार्य केवलज्ञानके द्वारा पदार्थोंको जानना तो है, परन्तु श्रुतज्ञानका अभाव होनेसे उक्त किसी भी प्रकारके सम्बन्धका विश्लेषण करना उसका कार्य नहीं है। पुद्गलोंका आवश्यक विवेचन
जिस प्रकार कालद्रव्य अणुरूप है उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अणुरूप है । दोनोंमें विशेषता यह है कि जहां कालद्रव्य असंख्यात है और निष्क्रिय है वहाँ पुदगल द्रव्य अनन्त हैं और क्रियाशील भी हैं। काल और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें एक विशेषता यह भी है कि जहाँ सभी कालाणु स्वभावदृष्टिसे समान हैं वहाँ सभी पुद्गलाणु स्वभावदृष्टिसे समान नहीं हैं । आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है
प्रत्येक पृद्गलाणु में स्वभावतः काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन पाँच वर्णो मेंसे कोई एक वर्ण रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके हो जाते हैं । वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके सभी पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा और कषायला इन पाँच रसोंमें कोई एक रस रहता है। अतः सभी पुदगलाणु पाँच वर्षों और पांच रसोंकी अपेक्षा ५४५%3D२५ प्रकारके हो जाते हैं। इन २५ प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणमें सुगन्ध, और दुर्गन्ध दो गन्धोंमेंसे कोई एक गन्ध
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१६४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे २५४२% ५० प्रकारके हो जाते हैं । इन ५० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें स्निग्ध और रूक्ष इन दो स्पर्शोमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । इस प्रकार सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे ५०x२ = १०० प्रकारके हो जाते हैं। इस १०० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें शीत और उष्ण इन दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे १०० x २ = २०० प्रकारके हो जाते हैं।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि आगममें स्पर्शके स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, हल्का, भारी, कठोर और कोमल इस प्रकार आठ भेद बतलाये गये हैं। किन्तु सभी पुद्गलाणु यतः एकप्रदेशात्मक ही होते हैं । अतः उनमें स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण ये चार स्पर्श रहते हुए भी हल्का, भारी, कठोर, और कोमल इन चार स्पर्शीका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि हल्का, भारी, कठोर और कोमल ये चार स्पर्श नानाप्रदेशात्मक पुद्गल वस्तुमें ही सम्भव होते हैं । इतना अवश्य है कि प्रत्येक पुद्गलाणुमें जो स्निग्ध और रूक्ष दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श पाया जाता है, उसके आधारपर एक पुद्गलाणु दूसरे पुद्गलाणुके साथ बन्धको भी प्राप्त होता रहता है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके “स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः" (५-३३) सूत्रसे स्पष्ट है। इस प्रकार दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गलपरमाणु जब परस्पर बन्धको प्राप्त हो जाते हैं तब उनमें हल्का, भारी, कठोर और कोमल इन चार स्पर्शोके सद्भावकी सम्भावना हो जाती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके "अणवः स्कन्धाश्च" (५-२५) सूत्र में पुद्गलके अणु और स्कन्ध दो भेद बतलाये गये हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हल्का और भारी तथा कोमल और कठोर परस्परसापेक्ष होकर ही उस-उस स्पर्शरूपताको प्राप्त होते हैं।
पुद्गलोंमें पृथ्वी, जल अग्नि और वायु ये चार स्कन्ध तो प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हैं। इनका निर्माण भी पुद्गलाणुओंके परस्पर बन्धके आधारपर ही समझना चाहिए। गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ६०२ में जो बादर-बादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, सूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म ये ६ भेद पुद्गलोंके बतलाये गये हैं, उनमेंसे पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण आदि बादर-बादर स्कन्ध है । जल, तेल आदि बादर स्कन्ध हैं। छाया, आतप चाँदनी आदि बादर-सूक्ष्म स्कन्ध है। शब्द, गन्ध, रस आदि सूक्ष्म-स्थल स्कन्ध हैं। ज्ञानावरणादिकर्म सूक्ष्म स्कन्ध है और अखण्ड पुद्गल परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्मरूपमें अणु ही है।
गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ५९३-९४ में पुद्गलोंके वर्गणाओंके रूपमें २३ भेद भी बतलाये गये हैं। इनमेंसे वर्ग सूक्ष्म पुद्गलाणुरूप है और एकजातीय वर्गोके समूहका नाम वर्गणा है। इस तरह २३ वर्गणाओंकी व्यवस्था आगमके अनुसार ज्ञातव्य है। यहाँ आवश्यक जानकर आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणाके विषयमें स्पष्टीकरण किया जाता है।
आहारवर्गणाके तीन भेद है । एक आहारवर्गणा वह है जिससे औदारिक शरीरकी रचना होती है। दूसरी आहारवर्गणा वह है जिससे वैक्रियिक शरीरका निर्माण होता है और तीसरी आहारवर्गणा वह है जो आहारकशरोररूप परिणत होती है। इनके भी यथासम्भव अनेक प्रकार आगमके आधारपर जान लेना चाहिए। जैसे तिर्यन्चोंकी नाना जातियाँ देखने में आती हैं तो उनके शरीरका निर्माण भी भिन्न-भिन्न प्रकारकी औदारिक वर्गणाओंसे होता है । तैजसवर्गणासे तैजस शरीरका निर्माण होता है । भाषावणासे शब्दकी रचना होती है व मनोवर्गणासे द्रव्यमनका निर्माण होता है । इसीप्रकार कार्मणवर्गणायें मूलमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारको है व इनके बन्धको अपेक्षा १४६ उत्तरभेद हैं। इनसे ही पृथक्-पृथक् उस-उस कर्मप्रकृतिका निर्माण होता है।
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________________ 3 / धर्म और सिद्धान्त : 165 पुद्गलके विषयमें इतना जो विवेचन किया गया है उसका प्रयोजन यह है कि जो अणुरूप अनन्तपदगल हैं वे ही कालाणकी तरह वास्तविक द्रव्य है. अतः उनका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता पुद्गलाणुओंकी जितनी परस्पर संयुक्त या बद्ध दशाएँ हैं वे वास्तविक नहीं हैं अर्थात् उपचरित है, अतः पुद्गलाणुओंकी संयुक्त या बद्ध दशामें भी पृथक्-पृथक् पुद्गलाणका ही प्रतिभासन केवलज्ञानमें होता है / उन संयुक्त या बद्ध दशाओंका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं होता। इतना अवश्य है कि पुद्गलाणुकी संयुक्त या बद्ध दशाएँ लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी हैं अतः उन्हें भी उपचरितरूपसे वास्तविक कहा जाता है / तथा उनका यथासम्भव प्रतिभासन भी मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें होता है व श्रूतज्ञान द्वारा उनका विश्लेषण भी होता है / यह सब विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इसप्रकार "केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा" प्रकरणमें अब तक जो विवेचन किया गया है उससे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलके रूपमें जितने पृथक्-पृथक स्वतंत्रसत्ताधारी पदार्थ विद्यमान हैं वे सब पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी तथा जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही रह रहे हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थकी अपनीअपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपता संयक्त या बद्ध दशामें भी एक दूसरे पदार्थकी द्रव्यरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासे भिन्न तदात्मक एकत्व प्राप्त धर्म है तथा प्रत्येक पदार्थकी ऐसी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता है। इनके लौकिक व आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी होनेके कारण उपचरितरूपसे वास्तविक संयुक्त दशा या बद्ध दशाका प्रतिभासन केवलज्ञान नहीं होकर मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें ही होता है। एवं विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा होता है। अतएव इस विवेचनको ध्यानमें रखकर ही कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 321-22 का, पद्मपुराण सर्ग 110 के श्लोक 40 का और कविवर भैया भगवतीदासजीके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसो वोरा रे" इस कथनका तथा इसी प्रकारके अन्य आगम-वचनोंका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए / ऐसा करनेसे ही वर्तमानमें जैनागमका वास्तविक रहस्य समझमें आ सकता है व सोनगढ़ द्वारा स्थापित की गयी गलत व्यवस्थाओंसे दिगम्बर जैन समाजमें जो उथल-पुथल मच गयी है वह शांत हो सकती है। इस विषयमें वर्तमान पीढ़ीके विद्वानोंका यह उत्तरदायित्व है कि वे जैन संस्कृतिके आगममें प्रतिपादित सिद्धान्तोंका निष्कषायभावसे सम्यक् उद्घाटन करें।