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१६० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
रहते हैं। जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल तो उस बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना-अपना स्व-परप्रत्यय परिणमन विकृत भी करते रहते हैं। समयसार गाथा ८० में कहा भी है कि जीवके परिणामोंके निमित्त (सहयोग) से पुदगल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गलकर्मके निमित्त (सहयोग) से जीव भी तथैव (रागादिभावकर्मरूप) परिणत होता हैं
जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमई ॥ समयसार गाथा ८१ में यह भी कहा गया है कि बद्ध दशामें जीव पुद्गलकर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और पुद्गलकर्म जीवगुणरूप परिणत नहीं होता। परस्परके निमित्तसे (सहयोगसे) दोनोंका अपनाअपना परिणमन अश्य होता है--
ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जोवो कम्मं तहेव जीवगुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहणंपि ।। यह वस्तुस्थिति है । इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि उपर्युक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त होकर रह रहे हैं व जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल अनादिकालसे परस्पर बद्ध होकर भी रहते आये हैं, तथापि वे पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें भी सतत अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही विद्यमान हैं। जैसे संयुक्त दशामें आकाशकी अपनी द्रव्यरूपता नियत अनन्तप्रदेशात्मक हो है। धर्मको, अधर्मकी और सभी जीवोंमेंसे प्रत्येक जीवकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता नियत असंख्यातप्रदेशात्मक ही है। तथा समस्त कालोंमेंसे प्रत्येक कालकी व समस्त पदगलोंमेंसे प्रत्येक पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता एकप्रदेशात्मक ही है । ऐसी ही स्थिति संयुक्त दशामें उन पदार्थोकी अपनी-अपनी गुणरूपता और स्वप्रत्यय एवं स्व-परप्रत्ययपर्यायरूपताकी भी नियत है तथा बददशामें जीव और पुद्गलकी व पुद्गल और पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, व स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताकी भी ऐसी ही स्थिति नियत है । यही कारण है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय (पद्य एक) में बतलाया गया है कि सभी पदार्थ केवलज्ञानमें दर्पणतलके समान अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, और स्वप्रत्यय व स्वपरप्रत्ययपर्यायरूपतासहित प्रतिसमय युगपत् पृथक्-पृथक् ही प्रतिफलित हो रहे हैं
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः ।
दपर्णतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिक यत्र । जो बात इस पद्यमें बतलाई गई है वही बात तत्त्वार्थसूत्रके 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' (१-२९) सूत्रमें भी बतलाई गई है।
यह विवेचन हमें इस निष्कर्षपर पहुंचा देता है कि उक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी जब केवलज्ञानमें सतत् अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे हैं तो उस स्थितिमें उन पदार्थोंको संयुक्त दशाका व जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गलकी बद्धदशाका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि समयसार, गाथा १०३, पंचास्तिकाय, गाथा ७ और समयसार, गाथा ८१ के अनुसार उक्त पदार्थोंका परस्पर पृथक्कपना वास्तविक सिद्ध होता है व उनकी यथायोग्य संयुक्त व बद्ध दशा
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