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३ / धर्म और सिद्धान्त : १५७
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंकी भविष्यवाणियाँ भी यथायोग्य सत्य हो सकती हैं या होती हैं, परन्तु वहाँ भी कार्य तो श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर ही सम्पन्न होते है । मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके यथायोग्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके बलपर अथवा उनकी भविष्यवाणियोंके बलपर नहीं । इस विवेचनसे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणामोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है।
६. उत्तरपक्षकी मान्यता है कि भवितव्यता (भविष्यमें होनेवाली कार्योत्पत्ति) के अनुसार ही जीवको बुद्धि हो जाती है। उसका पुरुषार्थ भी उसी भवितव्यताके अनुसार होता है और अन्य सहायक कारण भी उसी भवितव्यताके आधारपर प्राप्त होते हैं
"तादृशी जायते बुद्धिय॑वमायश्च तादृशः ।
सहायस्तादृशाः सन्ति यादृशी भविव्यता ॥" । सो उसकी यह मान्यता भी मिथ्या है क्योंकि वह पक्ष भवितव्यताके अनुसार होनेवाली कार्योत्पत्तिमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय (पुरुषार्थ) और अन्य सहायक कारणोंकी प्राप्ति भी उसी भवितव्यताके अनुसार मानता है। फलतः ऐसी अवस्थामें उक्त बुद्धि, पुरुषार्थ और सहायक कारणोंके बिना भी कार्योत्पत्तिके होनेका प्रसंग उपस्थित होता है। इसपर यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि वह प्रसंग उसको इष्ट है, तो उसका ऐसा कहना आप्तमीमांसाकी कारिका' ८८, ८९, ९० और ९१ के कथनके विरुद्ध है। इस बातको दार्शनिक विद्वान् अच्छी तरह समझ सकते हैं।
___ तात्पर्य यह है कि आप्तमीमांसाकी उक्त कारिकाओंके अनुसार भवितव्यता (भविष्यमें होनेवालो) कार्योत्पत्ति), जिसे वर्तमानमें कार्योत्पत्तिको योग्यता, अदष्ट या दैव कहा जाता है-के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं है। तथा इससे होनेवालो कार्योत्पति (उसको कार्यरूप परिणति) जीवकी बुद्धि (श्रुतज्ञान और व्यवसाय (परुषार्थ) तथा अन्य सहायक कारणोंका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है, अतः भवितव्यताको उक्त बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक कारणों को प्राप्तिमें कारण नहीं माना जा सकता है । फलतः उक्त कारिकाओंके आधारपर यही निर्णीत होता है कि पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता (कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता) हो उसे बद्धि. परुषार्थ तथा अन्य साधनसामग्रीका योग प्राप्त हो जावे, तो ही विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति होती है । तथा पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता विद्यमान रहनेपर भी यदि बुद्धि, व्यवसाय और अन्य १. दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् ।
दैवतश्चेदविर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ।।८८।। पौरुषादेवार्थसिद्धिश्रचेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाच्चेदमोघ स्यात सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।।८९।। विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्याय विद्विषाम् । अवाच्यतकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥९०॥ अबुद्धिपूपिआयामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्ट स्वपौरुषात ॥९१॥
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