Book Title: Paryavaran ke Pradushan ki Samasya aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 6
________________ 140 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के अनुपम साधन है ! कीटनाशकों का प्रयोग आज खेती में जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं का उपयोग बढ़ता जा रहा है वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण का कारण है। जैन परम्परा में गृहस्थ- उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की उद्देश्य पूर्ण हिंसा होती है, जो उसके लिए निषिद्ध है। इसी प्रकार गृहस्थ के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थ का व्यवसाय भी वर्जित है । अतः वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता है और न ही उनका क्रय-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के उपयोग बिना ही अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक है और न ही वाकनीय, क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी विपयुक्त बनते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकर होते हैं। रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता है, वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है, जिससे प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुंचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्यवर्द्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है। यह तथ्य न केवल मनो-कल्पना है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है । जैनों ने रात्रिभोजन- निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से मुक्त रखना है, क्योंकि रात्रि एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है, पुनः देर रात में किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है । शिकार और मांसाहार आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है उसमें वन्य-जीवों और जलीय जीवों का शिकार भी एक कारण है। आज जलीय जीवों की हिंसा के कारण जल में प्रदूषण बढ़ता है। यह तथ्य सुस्पष्ट है कि मछलियाँ आदि जलीय जीवों का शिकार जल-प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पतंग एवं वन्य जीव भी पर्यावरण के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार है। आज एक ओर वनों के कट जाने से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा है। जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है जबकि वह शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं करना जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है। मत्स्य, माँस, अण्डे एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के संरक्षण के लिए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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