Book Title: Paryavaran ke Pradushan ki Samasya aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 5
________________ प्रो. सागरमल जैन 139 निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात कि.मी. टहलते भी है। यह कैसी आत्मप्रवंचना है, एक ओर समय की बचत के नाम पर वाहनों का प्रयोग करना तो दूसरी ओर प्रातः कालीन एवं सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना। यदि मनुष्य मध्यम आकार के शहरों तक अपने दैनान्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग न करें तो उससे दोहरा लाभ हो। एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च बचे, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बधे। साथ ही उसका स्वास्थ भी अनुकूल रहेगा। प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे परम्परावादी लगती हो, किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव अस्तित्व की एक अनिवार्यता होगी। आज भी यू.एस.ए. जैसे विकसित देशों में यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है। वनस्पति जगत और पर्यावरण आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त है और अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते है, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् आदि को भी अनुभूति होती है। किन्तु जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीडा का अनुभव करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति आदि अन्य जीव-निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते है किन्तु उसे व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते। अतः व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यही है कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरुपयोग से बचे। जिस प्रकार हमें अपना जीवन-जीने का अधिकार है उसी प्रकार उन्हें भी अपना जीवन जीने का अधिकार है। अतः जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी स्त्र में हो उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। प्रकृति की दृष्टि में एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है, जितना एक मनुष्य का। पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक है, उतना मनुष्य नहीं है, वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है। वृक्षों एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध में भी प्राचीन जैन साहित्य में अनेक निर्देश है। जैन परम्परा में मुनि के लिए तो हरित-वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर उसे स्पर्श करने का भी निषेध था। गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति के उपयोग को यथा शक्ति सीमित करने का निर्देश है। आज भी पर्व-तिथियों में हरित-वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन गृहस्थ करते है। कंद और मूल का भक्षण जैन-गृहस्थ के लिए निषिद्ध ही है। इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ो का ही भक्षण करेगा तो पौधों का अस्तित्त्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार से उस पेड़ को जिसका तना मनुष्य की बाहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना गया है। गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उल्लेख है उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है। आवारांग में वनस्पति के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान है। इसी प्रकार बनों में आग लगाना, बनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप (महारम्भ ) माना गया है, क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूपित होता है। क्योंकि वन वर्षा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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