Book Title: Paryavaran ke Pradushan ki Samasya aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 8
________________ 13. विमल 14. अनन्त 15. धर्म: 16. शान्ति - नन्दीवृक्ष 17. कुन्धु तिलक 18. अर आम्रवृक्ष 14 -- -- -- —— ―― जम्बु अश्वत्थ (पीपल) दधिपूर्ण -- तीर्थंकर ऋषभ - बैल अजित गज —— सम्भव अश्व अभिनन्दन कपि सुमतिनाथ -- क्रौंच पुष्पदंत वासुपूज्य लांछन -- इस प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अशोक वृक्ष की छाया में बैठकर ही अपना उपदेश देते हैं इससे भी उनकी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजगता प्रगट होती है। प्राचीनकाल में जैन मुनियों को वनों में ही रहने का निर्देश था, फलतः वे प्रकृति के अति निकट होते थे । कालान्तर जब कुछ जैन मुनि चैत्यों या बस्तियों में रहने लगे तो उनके दो विभाग हो गये. -- 1. चैत्यवासी 2. वनवासी किन्तु इसमें भी चैत्यवासी की अपेक्षा वनवासी मुनि ही अधिक आदरणीय बने। जैन परम्परा में वनवास को सदैव ही आदर की दृष्टि से देखा गया। इसीप्रकार हम यह भी है कि जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं को एक-दूसरे से पृथक करने के लिए जिन प्रतीक चिन्हों (लांनों ) को प्रयोग किया गया है उनमें भी वन्य जीवों या जल-जीवों को ही प्राथमिकता मिली है। यथा मकर 142 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म • महिष • 19. मल्ली 20. मुनिसुव्रत 21. नमि -- बकुल 22. नेमि -- वेत्रसवृक्ष 23. पार्श्व - धातकीवृक्ष 24. महावीर (वर्धमान ) शालवृक्ष Jain Education International —— —— -- अशोक -- —— वराह विमल अनन्त श्येनपक्षी अनन्त रीछ शान्तिनाथ -- मृग कुंथुं -- छा चम्पक For Private & Personal Use Only सुद्रत - कूर्म पार्श्वनाथ - सर्प महावीर सिंह इन सभी तथ्यों से यह फलित है कि जैन आचार्य प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग रहे है तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आधार सम्बन्धी विधिनिषेध पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में पर्याप्त रूप से सहायक है। www.jainelibrary.orgPage Navigation
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