Book Title: Panchlingi Prakaranam
Author(s): Jineshwarsuri
Publisher: Pitambar Panna Shreshthi
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बृहद्वृत्तिः
स्निग्धा धर्मकथा मवक्त्रकहरात सौरभ्यगभो गिरः, खैरं यस्य विकखरा निरगमन् नन्द्यात् स शान्तिर्जिनः। पंचलिंगी
कायद्यपि गिरो गभीरा, जिनेश्वरबतिपतेस्तदपि रभसात् ॥ विमतिरपि पश्चलिगया, कर्तु प्रावृतमहं विवृतिम् ।। । इह हि गुर्जरवसुंधराधिपश्रीदुल्लेभराजसदसि महावादिचैत्यवासिकल्पितजिनभवनवासपरासनासादिताऽसाधारणविमुखरकीतिकौमुदीधौतविश्वम्भराऽऽभोगेन, सकलखपरसमयपारावारपारदृश्वना, प्रामाणिकपरिपच्छिखामणिना, श्रीजिनेश्वरमूरिणा, कलिकालदोपात इदानींतनशरीरिणां बलायुर्मेधादीन् अपचीयमानान् विभाव्य संक्षिप्तरुचिसवानग्रहाय पटस्थानक-पञ्चलिक्याख्यं प्रकरणद्वयं सूत्रितम् ॥
तत्र च षट्स्थानके द्वादशव्रतपरिकम्मोदिरूपः श्राद्धधम्म प्रत्यपादि, सच सम्यक्खमूलः, तच्च निःश्रेयसकल्पविटपिबीजं शक्रचक्रधरकमलासन्धानाऽवन्ध्यनिबन्धन, दुगेतिद्वाररोधाऽमोघपरिघायमाणः प्रशस्तसूत्रार्थश्रद्धानरूप आत्मपरिणामो, न चान्तरङ्गखाद् एष प्रत्यक्षेण अवसातुं शक्यते, न वा अनवसितोऽस्तिखादिव्यवहाराय कल्पते, तथा च बहु विशीर्येत, इति, तदवसायाय लिङ्गम् अभिधित्सु-रागमे च उपशमादीनां पश्चानामपि सम्यक्खलिङ्गतया अभिधानात् , तम् अनुसरन्नुपशमादिलिङ्गपञ्चकसमाहाररूपं पञ्चलिङ्गयाख्यं प्रकरणं प्रारभमाणः सम्यक्त्वस्य च निखिलमङ्गलमौलिमाणिक्यतया तल्लिङ्गानामपि तथात्वं संभावयन् श्रीजिनेश्वरमूरिः प्रत्यूहापोहाय आदौ भावमङ्गलप्रख्य-लिङ्गपञ्चकाभिधायिका गाथाम आहउवसम संवेगो वि य निव्वेओ तह य होइ अणुकंपा ॥ अत्थिकं चिय पंचवि हवंति सम्मत्तलिंगाइं ॥१॥ व्याख्या-'उपशमादीनि' सम्यक्त्वलिङ्गानि भवन्ति इति सम्बन्धः, तत्र वक्ष्यमाणखरूपमिथ्याभिनिवेशव्यावृत्तिः उपशमः,
॥१
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 389