Book Title: Pali Aur Prakrit Author(s): Bramhadev Narayan Sharma Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 5
________________ २५५ पालि और प्राकृत पाये जाते हैं- जैसे माकन्दिक से 'मागन्दिम' कचंगल से 'कजंगल' तथा अचिरवती से 'अजिरवती' दोनों में समान रूप से होते हैं । पर पालि में इसके विपरीत प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है - जैसे शब्द के मध्य में स्थित घोष स्पर्शो का अघोष हो जानायथा अगरू से अकलु, मुवंग से मुतिंग, कुसीद से कुसीत आदि । शौरसेनी पूर्वकालिक अव्यय में दूण प्रत्यय लगता है, जैसे पठिदूण, पालि में भी इसी अर्थ में 'तून' प्रत्यय देखा जाता है जैसे सोनून, कातून आदि। यह प्रवृत्ति केवल शौरसेनी में ही नहीं वरन् पैशाची प्राकृत में भी है, जैसे गन्तुन, रन्तून, हसितून आदि । पेक्ख, गमिस्सति सक्किति जैसे रूपों में भी पालि और शौरसेनी में समानता है । पर कहीं-कहीं पालि शौरसेनी से नहीं भी मिलती है, जैसे शौरसेनी में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष एकवचन के क्रिया रूपों के अन्त में 'दि' का प्रयोग देखा जाता है जैसे 'करेदि' 'गच्छेदि' जब कि पालि में करोति और गच्छति रूप ही होता है। इस प्रकार शौरसेनी के साथ पालि के सम्बन्ध को देखा गया तथा यह ज्ञात हुआ कि ध्वन्यात्मक और रूपात्मक समानता होते हुए भी इसमें असमानताएँ भी हैं । महाराष्ट्री भी शौरसेनी का विकसित रूप है । इसे अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है । इसी प्रकार पालि और पैशाची प्राकृत में जो समानताएँ हैं, उनको इस प्रकार दिखाया जा सकता है, यथा घोष स्पर्शो ( ग्, दु, व के स्थान में अघोष स्पर्श (क्, त्, प) का होना । शब्द के मध्य स्थित व्यञ्जन का सुरक्षित रहना । भरिय 'सिनान' 'कसट' जैसे शब्दों में संयुक्त वर्णों का विश्लेषण पाया जाना । ज्ञ, ण्य् और न्य का 'ज्ञ' में परिवर्तन हो जाना । य का ज् में परिवर्तन न होकर ज्यों का त्यों रहना । अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा एकवचन में अकारान्त हो जाना आदि । 1 के अध्ययन से यह सहजतया सम्बद्ध नहीं किया जा सकता । इस प्रकार संक्षेप में प्राकृतों के साथ पालि आभास हो जाता है कि पालि को किसी एक प्राकृत से अपितु सभी प्राकृतों के तत्त्व पालि में पाये जाते हैं प्रान्तीय अन्तर के कारण भी इसमें विविधता पाई जाती है। पर इस अध्ययन से ऐसा लगता है कि प्राचीन आर्यभाषा अर्थात् वैदिक संस्कृत के काल में जो जन साधारण की बोलियाँ प्रचलित थीं उसी में इन दोनों महापुरुषों ने अपना उपदेश दिया था और प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में परिवर्तन के कारण मध्य भारतीय आर्यभाषा युग का उदय हुआ और इसी से पालि एवं प्राकृतों का उदय हुआ । दूसरी बात जो इससे स्पष्ट होती है, वह यह कि वैदिक भाषा की दुरूहता के कारण इसमें अनेक परिवर्तन हुए और इसी के फलस्वरूप पालि (मगध या मध्यमण्डल की भाषा) का उदय हुआ इसी का क्रमशः परिसंवाद -४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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