Book Title: Pali Aur Prakrit Author(s): Bramhadev Narayan Sharma Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 6
________________ 256 जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन प्रान्तों और प्रदेशों के परिवर्तन के कारण विकास होता गया, जिसके फलस्वरूप प्राकतें उद्भूत हुई, तदनन्तर इन सबों की स्वतंत्रता एवं स्वच्छन्दता को नियमन करने के लिए पाणिनी ने संस्कृत व्याकरण की रचना की, जिससे भाषा की एकरूपता बनी जो संस्कृत कहलायी। इस प्रकार वैदिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, संस्कृत यह क्रम ठीक हो सकता है / यह कहाँ तक सही है इस पर विद्वान् लोग विचार करेंगे। श्रमण संस्कृति का प्रचार-प्रसार इन्ही दोनों भाषाओं के माध्यम से हुआ इसीलिए इनको श्रमण संस्कृति का प्रतीक कहा जा सकता है / ऊपर के विचारों से यह ज्ञात होता है कि वैदिक भाषा के प्रयोगों की कठिनता के कारण जो परिवर्तन हए उसके फलस्वरूप ही भाषा में सरलता आयी, जिसका रूप अशोक के शिलालेखों की भाषा तथा पालि में दिखलाई पड़ता है और इसी का विकास अन्य प्राकृतों के रूप में पाया जाता है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पालि को प्राकृत से अलग नहीं किया जा सकता वरन् पालि ही प्राकृत का प्रारम्भिक रूप है यह कहा जा सकता है। बाद में इसका विकास होता गया और विभिन्न प्रादेशिक बोलियों के कारण मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची आदि नाम दे दिये गये। कुछ विद्वानों ने पालि भाषा को जनसाधारण की बोली नहीं होने की आशंका की है। यह सही भी हो सकता है क्योंकि जिस समय पालि बोली के रूप में प्रचलित होगी उस समय उसका रूप कुछ भिन्न अवश्य रहा होगा पर बाद में साहित्य की भाषा हो जाने पर उसके रूपों में परिवर्तन एवं संशोधन भी अवश्य हुए होंगे / दूसरी बात यह है कि ये भाषाएँ जनसाधारण की बोलियाँ रही होंगी। यह तो उन महापुरुषों द्वारा समर्थित है। भगवान् बुद्ध ने अपनी-अपनी भाषा में ही धर्म को सीखने और समझने की आज्ञा दी थी। जिसके फलस्वरूप ही इन भाषाओं में विविधता एवं अनेकरूपता है, साथ ही त्रिपिटक में विज्ञजनों से लेकर स्त्रियों एवं बच्चों तक को पालि में संलाप करते दिखाया गया है जिससे यह ज्ञात होता है कि पालि कभी जनसामान्य की भाषा अवश्य रही होगी, जिसे बाद में कुछ संशोधनों के साथ साहित्यिक रूप दे पालि एवं थेरवाद विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तरप्रदेश परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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