Book Title: Pali Aur Prakrit Author(s): Bramhadev Narayan Sharma Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 1
________________ पालि और प्राकृत डॉ. ब्रह्मदेव नारायण शर्मा श्रमण संस्कृति की दो मुख्य धाराएं हैं। बौद्ध एवं जैन। इन दोनों धाराओं के बाहक भगवान् बुद्ध तथा भगवान् महावीर रहे । भगवान् बुद्ध ने जो कुछ भारतीय संस्कृति को प्रदान किया वह सब पालि में हैं, तथा भगवान् महावीर ने प्राकृत के माध्यम से भारतीय जनमानस को आप्लावित किया। इन दोनों महापुरुषों के अमृतोपम सन्देश का वाहक पालि एवं प्राकृत भाषाएं रहीं जो न केवल भारत को वरन् विश्व को आचरण, तप, त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा प्रदान करने में समर्थ रहीं। इन्हीं के माध्यम से कोटि-कोटि लोगों ने अपने को दुःख की ज्वाला से निकाल कर शान्त एवं शीतल निर्वाण को प्राप्त किया। इन दोनों भाषाओं में कौन सी ऐसी विशेषताएँ थीं, जिसके कारण दोनों महापुरुषों ने इनको अपने उपदेश एवं विचार का माध्यम बनाया। यदि इस बात पर विचार किया जाय तो स्पष्ट होगा कि इन दोनों महापुरुषों को सम्पूर्ण मानवता के प्रति गहरी सम्वेदना थी, जिसके कारण इन्होंने अपना विचार ऐसी भाषा के माध्यम से व्यक्त करना चाहा जिसे अधिक से अधिक जन सामान्य समझ सके और उनसे लाभ उठा सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोनों महापुरुषों ने जनसाधारण की बोली में जो उस समय प्रचलित थी (पालि-प्राकृत ) उसमें अपना उपदेश देना श्रेयष्कर समझा । उसी जन भाषा में अपना-अपना विचार व्यक्त किया । प्रस्तुत प्रसंग में यह ध्यान देने की बात है कि दोनों महापुरुषों के उपदेश बहुत दिनों तक मौखिक ही रहे । कालान्तर में लिपिबद्ध हुए। संभवतः इसी के फलस्वरूप उन भाषाओं में अनेकरूपता दिखाई पड़ती है। यद्यपि भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध से ज्येष्ठ थे और उनकी परम्परा भी पूर्व से ही कायम थी, पर जैनागमों का संकलन पालि बौद्धागमों के बाद में हुआ। इतिहास से यह ज्ञात है कि पालि त्रिपिटक का संकलन ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में हो गया था पर जैनागमों का संकलन और लेखन ईसा की ५वीं-छठी शती में हुआ। इन दोनों महापुरुषों से पूर्व जिस भाषा का बोलबाला था वह वैदिक संस्कृत थी। जैसा कि भाषाविदों ने बताया है कि प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के अन्तर्गत वैदिक संस्कृत का स्थान था। इन्ही भाषाओं में विज्ञजन वार्तालाप भी करते थे पर जन सामान्य के लिए भी उस समय कोई बोली अवश्य परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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