Book Title: Pali Aur Prakrit Author(s): Bramhadev Narayan Sharma Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 3
________________ पालि और प्राकृत २५३ पालि और प्राकृत भाषाओं का ध्वनि-समूह प्रायः एक-सा है। ऋ, ऋ, लृ, ऐ, एवं औ का प्रयोग पालि एवं प्राकृतों में समान रूप से नहीं पाया जाता है । इन दोनों भाषाओं में लू के स्थान पर अ, इ, उ स्वरों में से कोई एक हो जाता है । ह्रस्व ए तथा ओ दोनों में होते हैं । विसर्ग दोनों में नहीं होते । श्, ष् के स्थान पर दन्त्यस काही प्रयोग देखा जाता है पर मागधी में तालव्य श ही होता है । मूर्द्धन्य ध्वनिक दोनों में ही पाये जाते हैं । शब्द के अन्तःस्थित अघोष स्पर्श के स्थान पर यू, व् का आगम दोनों में होता है । शब्द के अन्तःस्थित घोष महाप्राण की जगह 'ह' हो जाता है । शब्द के अन्तःस्थित अघोष स्पर्शो का घोष में परिवर्तन दोनों भाषाओं में पाया जाता है । इस प्रकार पालि एवं प्राकृत में समानता दिखाई पड़ती है । प्रस्तुत प्रसंग में विचारणीय यह है कि पालि को प्रायः सभी विद्वानों ने 'माधी' कहा है । आचार्य बुद्धघोष के समय से लेकर वर्तमान युग तक इसका मागधी नाम ही प्रचलित है । पर तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चलता है कि पालि और मागधी में अन्तर है । जिस मागधी का विवेचन उत्तरकालीन प्राकृत वैयाकरणों ने किया है तथा जिसके स्वरूप का दर्शन कतिपय अभिलेखों या नाटक ग्रन्थों में होता है, उससे तो पालि निश्चय ही भिन्न है । मागधी भाषा के रूप की तीन मुख्य विशेषताएँ हैं । प्रत्येक र् और स् का क्रमशः 'लू' और 'श' में परिवर्तन हो जाना तथा पुल्लिङ्ग और नपुंसक लिंग अकारान्त शब्दों का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप एकारान्त होना । पर पालि में ऐसा नहीं होता वरन् र् और ल दोनों ध्वनियों के रूप वहाँ मिलते हैं । तथा एकारान्त न होकर ओकारान्त ही होता हैं । इस प्रकार अशोक के पश्चिमी शिलालेखों में राजा, पुरा, आरभित्वा जैसे प्रयोग मिलते हैं तो पूर्व के शिलालेखों में क्रमशः लाजा, पुलुवं, आलभितुं रूप देखे जाते हैं । स काश में परिवर्तन पालि में कभी नहीं होता । केवल अशोक के ( मानसेहरा ) के शिलालेख में इसका प्रयोग अवश्य हुआ है, जैसे प्रियद्रशिन, प्रियदर्शि, प्राणशतसहस्रानि आदि । परन्तु मागधी शकार बहुला है, वहाँ स, ष, दोनों का तालव्य 'श' हो जाता है, जैसे पुरुषः का 'पुलिशे' शुष्क का शुश्क । इसी प्रकार पालि में पुल्लिंग और नपुंसक लिंग अकारान्त शब्दों के रूप प्रथमा विभक्ति एकवचन में क्रमशः ओकारान्त तथा अनुस्वरान्त होते हैं एकारान्त नहीं, पर अशोक के शिलालेखों में लाघुलोवादे, बुधे, 'मिगे' आदि रूप भी मिलते हैं । इन विभिन्नताओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मौलिक न होकर एक ही सामान्य भाषा के प्रान्तीय या जनपदीय रूप हैं जो उच्चारणभेद से परिसंवाद --४ Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6