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॥ श्री वीरजिन स्तवनम् ॥ ३.
वीर जिनेश्वर वचन सुधारस, पीतां श्रविहरू प्रीतजगीरी; मिथ्या परिणति भ्रमणा जागी, सुरता वीरपद जाय लगीरी. अज अविनाशी अटल अनादि, श्रात्मासंख्य प्रदेश पणेरी: निर्मळ शुद्ध सनातन साश्वत, प्रतिप्रदेशे शक्ति घणेरी.
तम वीर्य अनंतु धारक, विविपणे जे ग्रहेरी; वीरनाम जिनवरनुं जाणो, घट घट शक्ति नित्य लहेरी. तिरोभाव निज शक्ति प्रगटे, अस्ति नास्ति स्याद्वादमयीरी; अलख अगोचर अजरामर वर, वीर वीरता प्रगट जइरी.
समये समये निज रुद्धि अनन्ति रत्नत्रयी शुद्ध बतीरी; र चेतना परगट दो उपयोग, वर्ग रहित श्रपवर्ग गतिरी.
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वी. ४
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