Book Title: Niyamsara Part 02 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy View full book textPage 9
________________ को छोड़कर मन-वचन-काय की अन्तर्मुखी प्रवृत्तिवाला होता है वह प्रतिक्रमण करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि वह उस समय आत्मध्यान से युक्त होता है (88)। जो देहात्मवादी मिथ्यामार्ग को छोड़कर अंतरंग में स्थित होता हुआ जिनमार्ग में स्थिर आचरण करता है वह प्रतिक्रमण करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि वह उस समय आत्मध्यानसहित होता है (86)। प्रतिक्रमण के बाह्य शब्द-उच्चारण के कौशल को छोड़कर रागादि भावों के कर्तृत्व का निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण अर्थात् अतीत के दोषों का शमन होता है (83)। शुद्ध आत्मा की प्राप्ति जीवन का उत्तम प्रयोजन है, उसमें दृढ़तापूर्वक लगा हुआ उत्तम मुनि कर्म को समाप्त/नष्ट कर देता है । इसलिए ध्यान ही उत्तम प्रयोजन का हेतु होने से प्रतिक्रमण (है) (92)। प्रतिक्रमण नामक सूत्र में जिस प्रकार प्रतिक्रमण कहा गया है उसको उस प्रकार समझकर जो चिंतन करता है उसके उस समय प्रतिक्रमण होता है (94)। (ii) प्रत्याख्यान (भविष्य में होनेवाले शुभ-अशुभ विकल्पों का परिहार): जो साधु समस्त बाह्य वचन व्यापार को छोड़कर अंतरंग में स्थित होता हुआ शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रत्याख्यान होता है (95)। अन्तर्मुखी हुआ ज्ञानी इस प्रकार चिन्तन करता है- जो आत्मा केवलज्ञान स्वभाववाला, केवलदर्शन स्वभाववाला, अनन्त सुख से युक्त तथा केवलशक्ति स्वभाववाला है, वह मैं हूँ (96)। जो शुद्धआत्मा निजस्वभाव को नहीं छोड़ता है तथा थोड़ा सा भी परभाव ग्रहण नहीं करता है, सबको जानता-देखता है वह मैं हूँ (97)। वह विचारता है कि ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला अकेला मेरा आत्मा शाश्वत है इसके अतिरिक्त शेष पदार्थ मेरे लिए बाह्य हैं क्योंकि वे सभी संयोग लक्षणवाले हैं (102)। कषायरहित, संयमी, परीषहजयी, जागरूक, संसार के (2) नियमसार (खण्ड-2)Page Navigation
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