Book Title: Niyamsara Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ भय से त्रस्त साधक का प्रत्याख्यान सुखपूर्वक होता है (105)। इस प्रकार जो सदैव आत्मा और कर्म के भेद का अभ्यास करता है वह संयमी नियमपूर्वक प्रत्याख्यान को धारण करने के लिए समर्थ होता है (106)। (iii) आलोचना (स्वकृत दोषों का प्रक्षालन): पंच प्रकार के शरीर और आठ प्रकार के कर्म से रहित तथा विभाव गुण-पर्यायों से रहित आत्मा का जो अंतरंग में स्थित होकर ध्यान करता है उस श्रमण के आलोचना घटित होती है (107)। जो साधु अंतरंग में स्थित होकर निज भावदशा को समभाव में संस्थापित करके निज आत्मा को देख लेता है उसको आलोचन' नामक आलोचना कही जाती है (109)। चूँकि निज आत्मा का परिणाम स्वाधीन और समभाववाला होता है, इसलिए वह अष्ट कर्मों से परिपूर्ण भूमि में उत्पन्न दोषरूपी वृक्ष के मूल का उच्छेदन करने में समर्थ है यह आलुछंण' नामक आलोचना कही गई है (110)। जो साधु कर्मों से भिन्न विमलगुणों के निवास शुद्ध-आत्मा (निजात्मा) का अंतरंग में निष्ठापूर्वक गुणगान करता है वह 'वियडीकरण' (गुण-प्रकटीकरण) नामक आलोचना समझी जानी चाहिए (111)। लोक अलोक को देखनेवाले अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा भव्यों के लिए यह कहा गया है कि- कामवासना, अहंकार, कपट और लोभरहित भाव से भावशुद्धि होती है यह ‘भावशुद्धि' नामक आलोचना है (112)। (iv) प्रायश्चित (निर्विकार चित्त की प्राप्ति): अपने क्रोधादि विभाव भावों के क्षय आदि के चिंतन में लीन होना और अंतरंग में स्थित होकर निज शुद्धात्मा के गुणों का चिंतन प्रायश्चित्त कहा गया है (114)। अधिक कहने से क्या (लाभ)? महामुनियों का जो बाह्य-अंतरंग तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र है वह अनेक कर्मों के क्षय का निमित्त है। अतः वह पूर्ण प्रायश्चित्त है (117)। नियमसार (खण्ड-2)

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