Book Title: Nischay aur Vyavahar Kiska Ashray le
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 13
________________ आयाम प्रवर अभिनं, आप अभिनंदन २६० धर्म और दर्शन व्यवहार नैतिकता का स्वरूप व्यवहारिक नैतिकता का सम्बन्ध आचरण के उन बाह्य विधि-विधानों से है जिनके पालन की नैतिक साधक से अपेक्षा की जाती है । समाजदृष्टि या लोकदृष्टि ही व्यवहारिक नैतिकता के - शुभाशुभत्व का आधार है । व्यवहार नैतिकता कहती है कि कार्य चाहे कर्ता के प्रयोजन की दृष्टि से शुद्ध हो लेकिन यदि वह लोकविरुद्ध या जनभावना के प्रतिकूल है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए ।" V फ्र वस्तुतः नैतिकता का व्यवहारदर्शन आचरण को सामाजिक सन्दर्भ में परखता है । यह आचरण शुभाशुभत्व के मापन की समाजसापेक्ष पद्धति है जो व्यक्ति के सम्मुख समाजिक नैतिकता ( Social Morality ) को प्रस्तुत करती है । इसका परिपालन वैयक्तिक साधना की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से । यही कारण है वैयक्तिक साधना की परिपूर्णता के पश्चात् भी जैन आचारदर्शन समान रूप से इसके परिपालन को आवश्यक मानता रहा है । आचरण के सारे विधि-विधान, आचरण की समग्र विविधताएँ, व्यवहार नैतिकता का विषय हैं । व्यवहार नैतिकता क्रिया ( Doing ) है अतः आचरण कैसे करना इस तथ्य का निर्धारण करना व्यवहारिक नैतिकता का विषय है। गृहस्थ एवं संन्यास जीवन के सारे विधि-विधान जो व्यक्ति और समाज अथवा व्यक्ति और उसके बाह्य वातावरण के मध्य एक सांग संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, व्यवहारिक नैतिकता का क्षेत्र है । नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि के ५ आधार व्यवहार दृष्टि से नैतिक समाचरण एक सापेक्ष तथ्य सिद्ध होता है । उसके अनुसार देशकाल, वैयक्तिक स्वभाव, शक्ति और रुचि के आधार पर आचार के नियमों में परिवर्तन सम्भव है । यदि व्यवहारिक आचार में भिन्नता सम्भव है, तो प्रश्न होता है कि इस बात का निश्चय कैसे किया जावे कि किस देश काल एवं परिस्थिति में कैसा आचरण किया जावे ? आचरण का बाह्य स्वरूप क्या हो ? जैन विचारकों ने इस प्रश्न का गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया है । वे कहते हैं कि निश्चय दृष्टि से तो संकल्प (अध्यवसाय) की शुभता ही नैतिकता का आधार है लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में शुभत्व और अशुभत्व के मुल्यांकन करने, आचरण के नियमों का निर्धारण करने के पाँच आधार हैं और इन्हीं पांच आधारों पर व्यवहार के भी पाँच भेद होते हैं । यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन पाँच आधारों में पूर्वापरत्व का क्रम भी है और पूर्व में आचरण के हेतु निर्देशन की उपलब्धि होते हुए भी पर (निम्न ) का उपयोग करना भी अनैतिकता है । (१) आगम-व्यवहार किसी देश - काल एवं वैयक्तिक परिस्थिति में किसी प्रकार का आचरण करना । इसका प्रथम निर्देश हमें आगम ग्रन्थों में मिल जाता है, अतः आचरण के क्षेत्र में प्रथमतः आगमों में वर्णित नियमों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । यही आगम-व्यवहार है । (२) श्रुत व्यवहार श्रुत शब्द के दो अर्थ होते हैं - १ अभिधारण और २ परम्परा । जब किसी विशेष परिस्थिति में कैसा समाचरण किया जावे, इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता हो या आगम १ यद्यपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्धं न समाचरेत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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