Book Title: Nischay aur Vyavahar Kiska Ashray le
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 1
________________ ما تتعارك مع الاعلاف وتمرخ ALANKaanirwAAAAD marnamaAaranAAJSAMARRIABAnasurarianAM भामा प्रवभिआनन्दमाश na आचार्यप्रवरआभन श्राआनन्दभन्थ श्राजा wrrearrammamawwwmaramaniamasomamim डा० सागरमल जैन एम. ए., पी-एच. डी. [भारतीय धर्म एवं दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन में संलग्न, चिन्तनशील लेखक । संप्रति हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में दर्शनविभाग के अध्यक्ष RA THA निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें ? चाहे तत्वज्ञान का क्षेत्र हो या आचरण का, बौद्धिक विश्लेषण हमारे सामने यथार्थता या सत्य के दो पहलू उपस्थित कर देता है, एक वह जैसा कि हमें दिखाई पड़ता है और दूसरा वह जो इस दिखाई पड़ने वाले के पीछे है; एक वह जो प्रतीत होता है, दूसरा वह जो इस प्रतीती के आधार में है। हमारी बुद्धि स्वयं कभी भी इस बात से सन्तुष्ट नहीं होती है कि जो कुछ प्रतीती है वही उसी रूप में सत्य है । वरन् वह स्वयं ही उस प्रतीती के पीछे झाँकना चाहती है। वह वस्तुतत्त्व के इन्द्रियगम्य स्थूल स्वरूप से सन्तुष्ट नहीं होकर उसके सुक्ष्म स्वरूप तक जाना चाहती है । दूसरे शब्दों में दृश्य से ही सन्तुष्ट नहीं होकर उसकी तह तक प्रवेश पाना यह मानवीय बुद्धि की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। जब वह अपने इस प्रयास में वस्तुतत्व के प्रतीत होने वाले स्वरूप और उस प्रतीती के पीछे रहे हुए स्वरूप में अन्तर पाती है तो स्वयं ही स्वतःप्रसुत इस द्विविधा में उलझ जाती है कि इनमें से यथार्थ कौन है ? प्रतीती का स्वरूप या प्रतीती के पीछे रहा हआ स्वरूप? व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोण की स्वीकृति आवश्यक क्यों ? तत्वज्ञान की दृष्टि से सत् के स्वरूप को लेकर प्रमुखतः दो दृष्टियाँ मानी गई हैं, एक तत्ववाद और २. अनेक तत्ववाद ।' एक तत्ववादी व्यवस्था में परमतत्व एक या अद्वय माना जाता है । यदि परम तत्व एक है तो प्रश्न उठता है यह नानारूप जगत कहाँ से आया ? यदि अनेकता यथार्थ है तो वह एक अनेक रूप में क्यों और कैसे हो गया? यदि एकत्व ही यथार्थ है तो इस प्रतीती के विषय में नानारूपात्मक जगत की क्या व्याख्या? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित उत्तर एकतत्ववाद नहीं दे सकता । इसी प्रकार द्वितत्ववादी या अनेक तत्ववादी दार्शनिक मान्यताएँ उन दो या अनेक तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट करने में असफल हो जाती हैं। क्योंकि सत्ताओं को एक दूसरे से स्वतन्त्र मानकर उनमें पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं किया जा सकता। अद्वैतवाद या एकतत्ववाद इस नानारूपात्मक जगत की व्याख्या नहीं कर सकता और द्वितत्ववाद या अनेकतत्ववाद उन दो अथवा अनेक सत्ताओं में पारस्परिक सम्बन्ध नहीं बता सकता। एक के लिए अनेकता अयथार्थ होती है, दूसरे के लिए उनका सम्बन्ध अयथार्थ होता है। लेकिन इन्द्रियानुभव से अनेकता भी यथार्थ दिखती है और सत्ताओं का पारस्परिक सम्बन्ध भी यथार्थ दिखता है, अतः इन्हें झुठलाया भी नहीं जा सकता । एकतत्ववाद या अद्वैतवाद में अनेकता की समस्या का और नाटा UL १ यहाँ द्वितत्ववाद को भी अनेक तत्ववाद में ही समाहित मान लिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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