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निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें ? २६३
एवं बाह्य पक्षों में कोई अन्तर नहीं होता । विशुद्ध मनोभाव की अवस्था में अनैतिक आचरण सम्भव ही नहीं होता। यही नहीं वह नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के पश्चात भी साधक को संघधर्म के बाह्य नियमों के समाचरण को यथावत करते रहने का विधान करती है। जैसे नैतिकता कहती है कि यदि शिष्य नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और आचार्य उस पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाया हो फिर भी संघमर्यादा के लिए शिष्य को गुरु की यथावत सेवा करना चाहिए । इस प्रकार वह निश्चय दृष्टि या परमार्थ दृष्टि पर बल देते हुए भी व्यवहार का लोप नहीं करती, मात्र यही नहीं परमार्थ की उपलब्धि पर भी व्यवहार धर्म के यथावत् परिपालन पर आवश्यक बल देती है। गीता और बौद्ध आचारदर्शन भी वैयक्तिक दृष्टि से आचरण के आन्तर पक्ष पर यथेष्ठ बल देते हुए भी लोक व्यवहार संचरण या आचरण के बाह्य रूपों के परिपालन को भी आवश्यक मानते हैं। गीता कहती है कि जिस प्रकार सामान्य जन लोकव्यवहार का संचरण करता है उस प्रकार विद्वान भी अनासक्त होकर लोकशिक्षा के हेतु को ध्यान में रखकर लोकव्यवहार का संचरण करता रहे। गीता का वर्णाश्रमधर्म और लोकसंग्रह का सिद्धान्त भी इसी का प्रतीक है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नैश्चयिक आचार या नैतिक जीवन के आन्तरिक स्वरूप का वैयक्तिक दृष्टि से पर्याप्त महत्व होते हुए भी लोकदृष्टि से आचरण के बाह्य पक्ष का महत्व झुठलाया नहीं जा सकता | जैनदृष्टि के अनुसार वास्तविकता यह है कि नैतिकता के आन्तर और बाह्य पक्ष की या नैश्चयिक और व्यावहारिक आचरण की सबलता अपने स्व-स्थान में है । वैयक्तिक दृष्टि से निश्चय या आचरण का आन्तर् पक्ष महत्वपूर्ण है लेकिन समाज दृष्टि से आचरण का बाह्य स्वरूप भी महत्वपूर्ण है, दोनों में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि निश्चयलक्षी एवं व्यवहारलक्षी । दोनों में से आचरण का महत्व व्यक्तिगत और समाजगत ऐसे दो भिन्न-भिन्न आधारों पर किसी एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि व्यक्ति स्वयं में ही व्यक्ति और समाज दोनों ही एक साथ है । महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु तुल्य सत्पुरुष श्री राजचन्द्रभाई इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं 'यदि कोई निश्चयदृष्टि अर्थात् नैतिक जीवन में आन्तरिक वृत्तियों को ही महत्व देता है और आचरण की बाह्य क्रियाओं (सद् व्यवहार) का लोप करता है वह साधना से रहित है । वास्तविकता यह है कि तात्विक निश्चय दृष्टि को अर्थात् आत्मा असंग, अबद्ध और नित्य सिद्ध है ऐसी वाणी को सुनकर साधन अर्थात् क्रिया को छोड़ना नहीं चाहिए, वरन् परमार्थ - दृष्टि को आदर्श रूप में स्वीकार करके अर्थात् उस पर लक्ष्य रखकर के बाह्य क्रियाओं का आचरण
१ जे सदगुरु उपदेशथी पाम्यो केवलज्ञान ।
गुरु रह्या छद्मस्थ पण विनय करे भगवान ॥ आत्मसिद्धि शास्त्र १६
गीता ३।२५
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3 लह्य स्वरूप न वृत्ति नुं ग्रह्य व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने लेवा लौकिक मान ॥ २८ अथवा निश्चय नय ग्रहे मात्र शब्दनी मांय । लोपे सद्व्यवहारने साधन रहित थाय ॥२६ निश्चय वाणी सांभली साधन तजवां नोय । निश्चय राखी लक्षमां साधन करवां सोय ।। १३१ नय निश्चय एकांत थी आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहीं वन्ने साध रहेल ॥ १३२
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- आत्मसिद्धि शास्त्र ( राजचन्द्रभाई)
श्री आनन्दका अन्थ
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