Book Title: Nirvan Upnishad
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 13
________________ बूंद चाहे भी कि सागर को बिना स्मरण किए सागर की खोज कर ले, तो भी वह खोज हो न सकेगी। और कोई दीया सोचता हो कि सूर्य को स्मरण किए बिना सूर्य को खोज लेगा, तो नासमझी है। आत्मा भी परमात्मा की खोज पर निकली हो, तो सिर्फ अपने पर भरोसा करके चले तो पहुंच न सकेगी। अपने पर भरोसा काफी नहीं है। परमात्मा का स्मरण जरूरी है-उस परमात्मा का स्मरण, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है। यही कठिनाई है। जिस परमात्मा का हमें कोई भी पता नहीं है, उसका स्मरण बड़ी कठिन और असंभव बात है। और अगर हम यह जिद करें कि पता होगा तभी स्मरण करेंगे, तो भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि पता हो जाने पर स्मरण की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। जो जानते हैं, उन्हें प्रभु का नाम लेने की भी कोई जरूरत नहीं है। जो पहचानते हैं, उनके लिए प्रार्थना व्यर्थ है। और जिन्हें पता नहीं है, वे कैसे प्रार्थना करें! वे कैसे पुकारें उसे! वे कैसे स्मरण करें! जिन्हें उसकी कोई खबर ही नहीं है, उसकी तरफ वे हाथ भी कैसे जोड़ें और सिर भी कैसे झुकाएं! बूंद को सागर का कोई भी पता नहीं है, लेकिन फिर भी बूंद जब तक सागर न हो जाए तब तक तृप्त नहीं हो सकती। और अंधेरी रात में जलते हुए एक छोटे से दीए को क्या पता होगा कि सूरज के बिना वह न जल सकेगा। लेकिन सूर्य कितना ही दूर हो, वह जो छोटा सा अंधेरे में जलने वाला दीया है, उसकी रोशनी भी सूर्य की ही रोशनी है। और आपके गांव में आपके घर के पास छोटा सा जो झरना बहता है, उसे क्या पता होगा कि दूर के सागरों से जुड़ा है! और अगर सागर सूख जाएं और रिक्त हो जाएं तो यह झरना भी तत्काल सूखकर समाप्त हो जाएगा! झरने को देखकर आपको भी खयाल नहीं आता कि सागरों से उसका संबंध है। ___आदमी भी ठीक ऐसी ही स्थिति में है। वह भी एक छोटा सा चेतना का झरना है। और उसमें अगर चेतना प्रकट हो सकी है तो सिर्फ इसीलिए कि कहीं चेतना का कोई महासागर भी निकट में है—जुड़ा हुआ, संयुक्त, चाहे ज्ञात हो, चाहे ज्ञात न हो। ___ तो ऋषि एक यात्रा पर निकल रहा है इस सूत्र के साथ। लेकिन यह सूत्र बहुत अदभुत है और बहुत अजीब भी, एब्सर्ड भी, बहुत बेमानी भी। क्योंकि जिसकी खोज पर जा रहा है, उसी से प्रार्थना कर रहा है। जिसका पता नहीं है अभी, उसी के चरणों में सिर रख रहा है। यह कैसे संभव हो पाएगा? इसे समझ लें, क्योंकि जिसे भी साधना के जगत में प्रवेश करना है उसे इस असंभव को संभव बनाना पड़ता है। एक बात तय है कि बूंद को सागर का कोई भी पता नहीं है, लेकिन दूसरी बात भी इतनी ही तय है कि बूंद सागर होना चाहती है। जो हम होना चाहते हैं, उसके समक्ष ही हमें प्रणाम करना होगा-हमें, वे जो हम हैं। जो हम हैं, उसे उसके समक्ष प्रार्थना करनी होगी, जो हम हो सकते हैं। जैसे बीज उस संभावित फूल के सामने प्रार्थना करे, जो वह हो सकता है।

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