Book Title: Navyuga Nirmata Author(s): Vijayvallabhsuri Publisher: Atmanand Jain Sabha View full book textPage 7
________________ इसके बदले जैन और वैदिक दर्शन शास्त्रों के तुलनात्मक अध्ययन और विवेचन के लिये मनमें उत्सुकता बढ़ी। फलस्वरूप दो चार छोटी मोटी पुस्तकें लिखने का भी साहस हुआ। दूसरे शब्दों में कहूँ तो-स्वामी दयानन्द और जैनधर्म, पुराण और जैनधर्म, दर्शन और अनेकान्तवाद और चैत्यवाद समीक्षा आदि पुस्तकों की रचना उन्हीं के सत्संग, सद्भाव और प्रोत्साहन का परिणाम हैं । इसके अतिरिक्त अहिंसा-जीव दया तथा जीवरक्षा में पूर्ण विश्वास और इस दिशा में प्रतिवर्ष दो मास, कई वर्षों तक हैद्राबाद-सिकन्द्राबाद में किया जाने वाला जीवदया का प्रचार और उसमें प्राप्त हुई सफलता उन्हीं की सत्प्रेरणा और शुभाशीर्वाद का फल था। सारांश यह कि जीवन में यत्किंचित् जो भी रचनात्मक कार्य किया है वह उन्हीं की कृपा से हो सका है। महाराजश्री ने मेरे लिये क्या कुछ किया, मुझ पर उनका कितना स्नेह और कितनी कृपा थी इसका वर्णन करने लगू तो वह कर्तव्यभार (प्रस्तावना लिखना ) जो वे मुझे सौंप गये हैं बीच में ही रह जायगा । वाणी और लेखिनी तो पहले ही कृतज्ञता के बोझ से दबी जा रही है और मन विह्वल सा हो रहा है। फिर भी उनकी पुण्य स्मृति-वही तो प्राणों का एक मात्र बल रह गई है। मन्थकर्ता के विषय में युगवीर श्राचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वर जी महाराज की अपने गुरुदेव-(न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्री मद्विजयानन्दसूरि-श्री आत्मारामजी महाराज ) के श्रीचरणों में अपार श्रद्धा थी। जीवन के ८४ वर्ष पारकर जाने और गुरुदेव के निर्वाण पद प्राप्त करने के ५५ वर्ष बाद भी उनकी पुनीत सेवा में बिताया हुना एक २ क्षण इस विनीत शिष्य के स्मृति पटल पर अंकित था। अपनी इस अनन्य श्रद्धा से उल्लेखित होकर ही उन्होंने गुरुदेव की पुण्यश्लोक जीवनगाथा लिखने का सुन्दर और सफल प्रयास किया। ज्यों ज्यों ग्रन्थ का कलेवर पनपकर बढ़ता गया त्यों त्यों उनके मनमें आनन्द की लहरियां वेग पकड़ती गई परन्तु जीवन की डोरी कम होती गई । ग्रन्थ सम्पूर्ण होकर छपने को चला गया किन्तु बड़े खेद से कहना पड़ता है कि ग्रन्थ की इति के साथ ही उनके अपने जीवन की भी इति होगई । ग्रन्थ को प्रकाशित रूप में देखने की उनकी अभिलाषा पूरी न हो सकी । इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन का भार सौंपते हुए आचार्यदेव को यह भी इच्छा थी कि इसकी प्रस्तावना भी मैं हो लिखू । परन्तु संकोचवश साहस नहीं होता था, इतने महान् पुरुष की रचना के सम्बन्ध में मेरे जैसा कोई साधारण व्यक्ति क्या लिख सकता है । हृदय भर आता है कि उनकी यह आज्ञा उनकी उपस्थिति में पूरी करने का सद्भाग्य प्राप्त न हो सका । अतः उनकी अनुपस्थिति में उनकी आज्ञा पर पुष्प चढ़ाना अपना परमकर्तव्य समझते हुए यथामति ये दो शब्द लिखने आवश्यक होगये। ग्रन्थकर्ता आचार्यश्री अपने युग के परम मनीषी, अद्वितीय विद्वान्, लेखक और प्रवक्ता, परम तपस्वी, तत्त्ववेत्ता और विश्वधर्म के नेता थे। मानव को उसकी महानता दर्शाकर मानव की प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाकर, उसे आत्म दर्शन की महान साधना में लगाकर मानव का परम हित और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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