Book Title: Navyuga Nirmata Author(s): Vijayvallabhsuri Publisher: Atmanand Jain SabhaPage 10
________________ "आवश्यक दो शब्द" ( श्रीमद् विजय समुद्रसूरिजी महाराज ) -:४२: परम वन्दनीय सद्गुरुदेव का बहुत वर्षों से यह विचार था कि स्वर्गीय आचार्यदेव श्री विजयानन्द सूरीश्वर-श्रीआत्मारामजी महाराज का एक सांगोपांग जीवन चरित्र लिखकर प्रकाशित किया जावे, इस बात की उन्होंने मेरे साथ कई दफा चर्चा की थी। परन्तु यह कार्य उनके सिवा अन्य किसी से शक्य भी नहीं था, और इसके अतिरिक्त देश के विभाजन ने भी इस शुभ कार्य में काफी रुकावट उत्पन्न कर रक्खी थी। वि० सं० २००२ के लगभग गुजरांवाला में आपने इस कार्य का प्रारम्भ किया, जब कभी आपके मन में गुरुदेव के जीवन की कोई घटना स्मरण में आती आप उसी वक्त अपने पास में उपस्थित किसी साधु को लिखवा देते। इसी प्रकार संकलना करते हुए अन्त में श्री सिद्धाचल में किये जाने वाले चातुर्मास में आपने इसे मुनि श्री प्रकाशविजयजी को पास बिठाकर क्रमपूर्वक लिपिबद्ध कराने का प्रयास किया और बम्बई में पधारने के बाद अपने परम विश्वास पात्र पंडित हंसराजजी शास्त्री को इसके संशोधन और संपादन का भार सौंपा। और उन्हीं की सम्मति से आनन्द प्रिंटिंग प्रेस जयपुर में इसको छपवाने का निश्चय हुआ । गुरुदेव के इस आदेश को सहर्ष स्वीकार करते हुए पंडितजी ने इस काम को अपने हाथ में लिया और प्रेस के मालिक पं० ईश्वरलालजी की देख रेख में इसका मुद्रण हुआ। ___इस ग्रंथ में स्थानकवासी सम्प्रदाय के लिये अधिकांश "ढूंढक मत या ढूंढक पन्थ" इस नाम का उल्लेख किया गया है । इसका कारण यह है कि यह सम्प्रदाय उस समय इसी नाम से प्रसिद्ध थी । स्थानकवासी शब्द का व्यवहार तो उसके बाद होने लगा है। । उस समय के प्रख्यात साधु साध्वी तो “ढूँढत ढूंढत ढूंढलियो सब वेद पुराण कुरान में जोई” इत्यादि उक्तियों के द्वारा इसी नाम का समर्थन करते थे, इसलिये हमारे भाइयों को इस शब्द पर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिये । और यह तो सबको विदित ही + अब तो इस मत का-"श्री वर्द्धमान श्रमण संघ" (श्रावक संघ) नाम करण किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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