Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 11
________________ है कि श्री आत्मारामजी महाराज ने स्थानकवासी परम्परा को त्यागकर संवेगी परम्परा की साधु दीक्षा अंगीकार की और तदनुसार पंजाब में जैन परम्परा के इस स्वरूप की प्रतिष्ठा की। इस पर से यह अनुमान सहज ही में किया जा सकता है कि उनकी यह पुण्यश्लोक जीवन गाथा, उक्त समुदाय के लिये यद्यपि रुचिप्रद नहीं हो तो भी यदि समुच्चयरूप से देखा जाय तो श्री आत्मारामजी महाराज ने जैन समाज पर अपने सद्ग्रन्थों द्वारा जो स्थायी उपकार किया है उसमें उक्त सम्प्रदाय को भी उनका कृतज्ञ होना चाहिये। गुरुदेव की संयत लेखिनी ने इस जीवन चरित्र को लिखते समय बड़ी सावधानी से काम लिया है, कहीं पर भी भाषा समिति की अवहेलना नहीं होने दी। शोक तो मात्र इसी बात का है कि वे स्वयं इस जीवन गाथा को पूर्णरूप से प्रकाशित हुई २ न देख पाये । भावीभाव अमिट है। विनीत-सद्गुरुदेवचरणानुरागी समुद्रसरि (NS Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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