Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

Previous | Next

Page 6
________________ प्रस्तावन कारा आज आचार्यश्री विद्यमान होते ! "क्या इसकी प्रस्तावना आप नहीं लिखोगे पंडितजी ? नहीं आपको ही लिखनी होगी।" आपनी की इस प्रेम, माधुर्य और वात्सल्यगर्भित वचनावलि का स्मरण आते ही दिल भर आता है, कण्ठरुद्ध और वाणी गद्गद् हो उठती है । तभी सहसा मन पुकार उठता है काश ! आज आचार्यश्री विद्यमान होते ! अस्तु । कुछ अपने विषय में स्वर्गीय सूरिसम्राट् श्रीमद्विजयानन्द सूरि ( श्री आत्मारामजी ) महाराज के जीवनचरितात्मक इस विश्ववन्य मानव महान्, परमश्रद्धेय, युगवीर आचार्य श्री मद्विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज से मेरा सम्बन्ध लगभग ४० वर्ष तक रहा। बड़ा भाग्यशाली था मेरे जीवन का वह दिन जब उनका पुण्य सम्पर्क प्राप्त हुआ। बस फिर तो मैं उन्हीं का हो गया और उन्होंने भी जिस दिन से मेरा हाथ पकड़ा तो जीवनपर्यन्त अपनी छत्रछाया से विलग नहीं होने दिया ** काशी में अध्ययन समाप्त कर वापिस देश लौटने के कुछ महिनों बाद ही मुझे पुण्य सहवास का सौभाग्य प्राप्त हो गया। तब मैं एक अध्यापक के रूप में आपकी सेवामें उपस्थित हुआ था। यह तब की बात है जबकि वि० सं० १६६८ में आपश्री का चातुर्मास बड़ोदा स्टेट के प्रसिद्ध नगर मियां गाम में था । उस समय लगभग १८ साधु मेरे पास व्याकरण, न्याय और काव्यादि विभिन्न विषयों के अध्ययनार्थ नियुक्त किये गये थे । उस समय मुझे वैदिक परम्परा के शास्त्रीय साहित्य का ही ज्ञान था। जैन परम्परा के धार्मिक साहित्य के विषय में तो मैं बिलकुल ही कोरा था यहां तक कि जैन साधुओं के आचार विचारों का भी मुके कुछ ज्ञान नहीं था । श्रपश्री के पुण्य सहवास में आने के कुछ समय बाद जैन ग्रन्थों के स्वाध्याय का अवसर प्राप्त हुआ और उस ओर अभिरुचि बढ़ी। जैन सद्ग्रन्थों के अध्ययन और मनन से जहां जैन सिद्धान्तों से परिचय हुआ वहां हृदय में रही हुई साम्प्रदायिक संकीर्णता के लिये भी कोई स्थान न रहा और प्राचीन सभी भ्रान्त धारणाऐं जाती रहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 478