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प्रास्ताविक
अध्यापक
अंते सर्व कोइ आ ग्रंथनो सूक्ष्मता पूर्वक अभ्यास करी, कर्मना स्वरूपने जाणी, कर्मबंधना कारणोथी दूर रही, संवर-निर्जरा द्वारा कर्मनो क्षय करी शाश्वतसुखना भोक्ता बने, ए ज अंतरनी अभिलाषा.
लिग्वी:सिद्धक्षेत्र पादलिप्तपुर
कपूरचंद रणछोडदास वारैया वि० सं० २०३२ विजयादशमी
श्री जैन सूक्ष्म तत्त्वबोध पाठशाला ता०२-१० ७६
___ (श्री जैन श्रेयस्कर मंडल संचालित)
* प्रकाशकीय * प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन प्रसङ्ग पर कहते प्रसन्नता हो रही है कि सम्प्रति काल में सर्व-जीव-हितकर परमात्म-शासन की आधारशिला सम श्रुतज्ञान की भक्ति का लाभ प्रदान कर श्रुत-ज्ञान के धारक मुनि वृषभ हमें अत्यन्त अनुग्रहीत कर रहें हैं । प्रस्तुत प्रकाशन इसी अनुग्रह का एक अंश है। अभ्यासियों के लिए पठन-पाठन में नित्य उपयोगी यह ग्रन्थ यद्यपि नूतन प्रकाशन नहीं है तथापि पूर्व-प्रकाशित ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त हो रहे हैं और नये ज्ञान भण्डारों के लिए तो दुर्लभ है, अतः ग्रन्थ को पुनर्जीवन प्राप्त हो तथा नये ज्ञान-संग्रहालयों की आवश्यकतापूर्ति हो. इसी शुभ आशय से प. पू. स्व. आचार्यदेव सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब के पट्टप्रभावक वर्धमानतपो-निधि प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य गीतार्थ गणिवर्यश्री जयघोषविजयजी म. सा. तथा शिष्यरत्न प्रतिभासम्पन्नगणिवर्य श्रीधर्मजितविजयजी म. सा. ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए हमें प्रोत्साहित किया । उसीका यह फल आज आपके समक्ष पेश है।
ग्रन्थ की उपादेयता को शब्द-देह देना अति कठिन है फिर भी संक्षेप में कह सकते हैं कि परम-पद की साधना में साधक के जीवन में वैराग्य की जितनी आवश्यकता है उससे जरा भी कम उपादेयता इस ग्रन्थ की नहीं है। क्योंकि मोक्ष साधना का आधार वैराग्य है तथा वैराग्य का बीज कर्म-विपाकों की विषमता का चिन्तन है और यह अति गहन चिन्तन इसी प्रकार के ग्रन्थों के पठन-पाठन से ही प्रायः सुशक्य है । वाचक शिरोमणि उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी म. सा. विरचित ज्ञानसार ग्रन्थ के उपसंहार में "ध्याता कर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधेः" (कर्मविपाकों का चिन्तक भव-समुद्र से विरक्त होता है) श्लोकार्ध से इसी बात का संकेत प्राप्त होता है । फलित यह हुआ कि ग्रन्थ उपयोगी ही नहीं किन्तु प्राणवायु की भाँति साधक-जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक भी है।