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प्राक्कथन
पाठकों के हाथों आद्यदेव आचार्य भीखणजी की एक सुन्दरतम कृति का यह सानुवाद संस्करण सौंपते हुए, मनमें हर्ष का अतिरेक हो रहा है। आज से लगभग २० वर्ष पहले मैंने इसका सटिप्पण अनुवाद समाप्त किया था। वह ‘स्वान्तः सुखाय' था।
एक बार कलकत्ता में चातुर्मास के समय मैं आचार्य श्री की सेवा कर रहा था, उस समय उनके मुखारविंद से शब्द निकले-“नव पदार्थ स्वामीजी की एक अनन्य सुन्दर कृति है, वह मुझे बहुत प्रिय है। इसका आद्योपान्त स्वाध्याय मैंने बड़े मनोयोग पूर्वक किया है।" यह सुन मेरा ध्यान अपने अनुवाद की ओर खिंच गया और उसी समय मैंने एक संकल्प किया कि अपने अनुवाद को आद्योपान्त अवलोकन कर उसे प्रकाशित करूँ।
द्विशताब्दी समारोह के अभिनन्दन में प्रकाशित होनेवाले साहित्य में उसका भी नाम प्रस्तुत हुआ और इस तरह कार्य को शीघ्र गति देने के लिए एक प्रेरणा मिली। जिस कार्य को बीस वर्ष पूर्व बड़ी आसानी के साथ सम्पन्न किया था, वही कार्य अब बड़ा कठिन ज्ञात होने लगा।
मैंने देखा स्वामीजी की कृति में स्थान-स्थान पर बिना संकेत आगमों के सन्दर्भ छिपे पड़े हैं और उसके पीछे गम्भीर-चर्चाओं का घोष है। यह आवश्यक था कि उन-उन स्थानों के छिपे हुए सन्दर्भो को टिप्पणियों में दिया जाय तथा चर्चाओं के हार्द को भी खोला जाय । इस उपक्रम में प्रायः सारी टिप्पणियाँ पुनः लिखने की प्रेरणा स्वतः ही जागृत हुई।
कार्य में विलम्ब न हो, इस दृष्टि से एक ओर छपाई का कार्य शुरू किया दूसरी ओर अध्ययन और लेखन का। कलकत्ते में बैठकर सम्पादन कार्य करने में सहज कठिनाइयाँ थीं ही। जो परिश्रम मुझ से बन सका, उसका साकार रूप यह है। कह नहीं सकता यह स्वामीजी की इस गम्भीर कृति के अनुरूप हुआ है या नहीं।
तुलनात्मक अध्ययन को उपस्थित करने की दृष्टि से मैंने प्रसिद्ध श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्यों के मतों को भी प्रचुर प्रमाण में प्रस्तुत किया है। और स्वामीजी का उन विचारों के साथ जो साम्य अथवा वैषम्य मुझे मालूम दिया, उसे स्पष्ट करने का भी प्रयास किया है। स्वामीजी आगमिक पुरुष थे। आगमों का गम्भीर एवं तलस्पर्शी अध्ययन उनकी