Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri
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श्री नरविक्रमचरित्रे ।
॥२६॥
समुज्झसु खुद्दजणोचियं वाधारंति, अह समीहियत्थसिद्धी न जायत्ति तम्मसि ता गिण्हसु इमं परिकुवियकयंतजीहाकरालं परोपकारनीलपहापडलसामलियसयलदिसिचकवालं मम करवालं, करेसु मम सरीरविणासणेण नियसमीहियसिद्धिं, जओ मुको मए || रसिकसंपर्य पोरिसाभिमाणो तुह कजसाहणट्ठाएत्ति । अवि य
नरसिंहअच्छउ तरंगभंगुरमसारगं नियसरीरयं दूरे । जीयंपि हु परहियकारणेण धारिति सप्पुरिसा ॥१॥
नृपस्य जं पुण पदम चिय तुझ कारणे नो समपिओ अप्पा । विहिओ य झाणविग्यो एवं नणु कारणं तत्थ ॥ २ ॥
कापालिक मम विरहे एस जणो एसो नीसेससाहुबग्गो य । धम्मभंसमवस्सं पाविस्सइ पावलोयाओ ॥ ३॥
प्रति इण्इि तुह गुरु दुक्खं उपलक्खिय बद्धकक्खडसहावं । निरपेक्खं मज्झ मणो जायं सेसेसु कजेसु ॥४॥
स्वकीयसमुज्झ क्षुद्रजनोचितं व्यापारमिति, अथ समीहितार्थसिद्धिर्नजातति ताम्यसि, तदा गृहाण इमं परिकुपितकृतान्तजिह्वाकरालं प्राणप्रदाने नीलप्रभापटलश्यामलितसकलदिनचक्रवालं मम करवालं, कुरु मम शरीरविनाशनेन निजसमीहितसिद्धि, यतो मुक्तो मया साम्प्रतं तत्परता॥ | पौरुषाभिमानस्तव कार्यसाधनार्थमिति । अपि च
आस्तां तरङ्गभरमसारकं निजशरीरकं दूरे । जीवितमपि हु परहितकारणेन धारयन्ति सत्पुरुषाः ॥१॥ यत्पुनः प्रथममेव तव कारणे न समर्पित आत्मा । विहितश्च ध्यानविन एतन्ननु कारणं तत्र
॥ २ ॥ भम विरहे एष जन एष निःशेषसाधुवर्गश्च । धर्मभ्रंशमवश्यं प्राप्स्यति पापलोकात् इदानी तब गुरु दुःखमुपलक्ष्य बद्धकर्कशस्वभावम् । निरपेक्षं मम मनो जातं शेषेषु कार्येषु ॥ ४ ॥
।।॥ २६॥
CAUSAJHASHA
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