Book Title: Namaskar Mantrodadhi
Author(s): Abhaychandravijay
Publisher: Saujanya Seva Sangh

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Page 45
________________ ( ४४ ) के नख की दीप्त कान्ति वाले, दिव्य पुष्प-समूह से व्याप्त विशाल परिषद भूमि जहां विद्यमान है, ऐसा सुन्दर, रमणीय, सुहावना स्थान है, जहां पर मृग, सिंह, हाथी आदि तिर्यञ्च प्राणी भी निज का स्वाभाविक जाति वैर भाव को छोड़कर समवसरण के समीप आकर जिस जगह परमेष्टि स्वरूप त्रिलोकीनाथ सच्चिदानन्द परमात्मा विराजित हैं, उनके समीप आकर सर्व प्राणी मैत्री भाव से बैठे हुए हैं । उस समवसरण में अतिशय युक्त केवलज्ञान से प्रकाशमान ऐसे अरिहन्त भगवान के रूप का आलम्बन कर ध्यान करना उसको रूपस्थ ध्यान कहते हैं । राग, द्वेष और मोहादि विकारों से अकलङ्कित शान्त-कान्त मनोहर सर्व लक्षण युक्त, सुन्दर योग मुद्रा वाले जिनके दर्शन मात्र से अद्भुत आनन्द प्राप्त हो और नेत्र जहां से हटते भी न हो ऐसी जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा का भी निर्मल मन से लय लगाता हुआ निर्निमेष दृष्टि से ध्यान करे तो इस प्रकार के ध्यान को भी रूपस्थ ध्यान बताया है और यह अत्यन्त कल्याणकारी है । रूपस्थ ध्यान में तन्मय होकर लय लगाता हुआ ध्यान करने वाला प्रगट रूप में निज का सर्वज्ञ भूत होना देखता है । और उसे भास होता है कि यह जो सर्वज्ञ भगवान हैं, सो निश्चय करके मैं ही हूं । इस प्रकार की तन्मयता वाला ध्यानी पुरुष सर्वज्ञ की कोटि में गिना जाता है । वीतराग प्रभु का ध्यान करते हुए कर्मों का क्षय होता है, और ध्यानी वीतराग बन जाता है । जो मनुष्य रागी का आलम्बन लेगा रागी बनेगा । जो वीतराग का आलम्बन लेगा वीतराग बनेगा | क्योंकि यन्त्र वाहक जिस जिस भाव से तन्मय होता है, उसके साथ आत्मा विश्व रूप मरिण की तरह तन्मयता पाता है । और यह उदाहरण स्पष्ट है जैसे स्फटिक मरिण के पास 1 Scanned by CamScanner

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