Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 12
________________ हैं तो हो सकता है कि आप अंधश्रद्धा की चुंगल में फंसे हो सकते हैं। जी हां, सम्यग् श्रद्धा ही तारक है। अंधश्रद्धा अंततोगत्वा घातक है। महासागर के वीच अज्ञानी व्यक्ति अपनी नौका कैसे चलाएगा? किस दिशा में किधर चलाएगा। या फिर लंगर के बंधन में बंधी हुई परन्तु लहरों के बीच हिलने-डुलने वाली नौका को ही भ्रमवश चल रही है ऐसा मानने वाले शराबी के जैसी अंधश्रद्धा हमें कदापि नहीं रखनी चाहिए। सुख-दाता, दुःख हर्ता या सृष्टिकर्ता आदि जैसी मान्यता या श्रद्धा क्या अंधश्रद्धा नहीं कहलाएगी? क्यों नहीं कहलाएगी? ईश्वर विषयक सम्यग् ज्ञान - हमारी श्रद्धा का केन्द्रभूत ईश्वर तत्त्व ही अज्ञानग्रस्त, या मिथ्याज्ञानग्रस्त या अंधश्रद्धाग्रस्त रहेगा तो उपासक का कल्याण कैसे होगा? याद रखिए! समस्त संसार में समस्त जीवों के दुःख का मूलभूत कारण ही अज्ञान है, और मोह भी है। ठीक इसी तरह सुख का मूल कारण सम्यग् ज्ञान एवं वीतराग भाव है। आधारभूत एवं केन्द्र स्वरूप मुख्य ईश्वर के ही विषय में यदि इस प्रकार का अज्ञान-भम्र या अंधश्रद्धा या मिथ्याज्ञान होगा तो कल्याण होना ही असंभव होगा। जी हां, सच्ची सम्यग् श्रद्धा के लिए ज्ञान का भी सम्यग् पूर्ण सत्य स्वरूप होना नितान्त आवश्यक है। मोहग्रस्त माया एवं मोहासक्त संसारी जीवों ने इतनी भयंकर कक्षा की भूल कर दी है कि ... वास्तव में जो भगवान का यथार्थ स्वरूप था उसे न अपना कर अपने आपको जिस प्रकार के जैसे भगवान चाहिए थे वैसे बना लिए, वैसे मान लिए। और वैसे स्वरूप को ही संसार के प्रवाह में सर्वत्र प्रसारित कर दिया है। अतः वैसी ही मानने की मान्यता वाली परंपरा सदीयों से चली आ रही है। इसलिए ऐसा लगता है कि क्या भगवान जैसे थे? वास्तव में अपने स्वरूप में ईश्वर जैसे हैं वैसे ही स्वरूप में मानवी उन्हें मान रहा है या मानव की अपनी मोहग्रस्त जैसी वृत्ति थी तदनुसार उसे जैसे चाहिए थे वैसे बनाकर मानने लगा है? सर्वज्ञ वीतरागी भगवान जैसे थे, जैसा कि उनका यथार्थ वास्तविक स्वरूप था उसे छोड़कर स्वार्थवश मोहासक्त जीवों ने ईश्वर का स्वरूप अपने अनुकूल बनाकर मानना शुरू किया है? बस इस समस्या का हल आप ढुंढ निकालिए। आपको स्वयं को सच्चाई का पता लगेगा। मानव को चाहिए थे... सुखदाता और दुःखहर्ता। अतः मानवी ने अपने इस स्वार्थ या मोह का रंग ईश्वर पर लगा दिया और वैसा मानने लगा। लेकिन यह नहीं सोचा कि... मैं ऐसा मान रहा हुँ। परन्तु सचमुच ईश्वर ऐसा है या नहीं? यदि ईश्वर सुखदाता तथा दुःखहर्ता है ही नहीं और मैं उसे “है” के रूप में मानता ही जा रहा हुँ और अपने पुत्र-पौत्र की परंपरा में भी यही मान्यता रूढ करता जा रहा हुँ। क्या इस तरह एक मिथ्या - गलत परंपरा नहीं चलेगी? अरे... हां... अंधश्रद्धा यह सच्ची वास्तविक

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