Book Title: Nalvilasnatakam Author(s): Ramchandrasuri Publisher: Parshwanath Vidyapith View full book textPage 9
________________ नलविलासे 'यथा मुखादौ पद्मादेरारोपोरूपकं मतम्। तथैव नायकारोपो नटे रूपकमुच्यते ।। मन्दारमरन्दचम्पू, पृ. ५९। रूपक, नाट्य, अभिनेय और नाटक शब्द भी दृश्य काव्यों के लिए प्रचलित रहे हैं। नाट्य से मानवीय सुख-दुःखात्मक संवेदनाओं का अनुभावन करते हैं। इस प्रकर नाट्य और रूपक दोनों ही एक दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। धनञ्जय के अनुसार इनका प्रयोग पर्यायवाची शब्द के रूप में होता है। वास्तविकता तो यही है कि रूप, रूपक, नाट्य और अभिनेय आदि सभी शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में दृश्य-काव्य के लिए ही होता है। नाटक- नाटक रूपकों में प्रधान है। नाटक के मूल में मनुष्यमात्र की सुखदुःखात्मक संवेदनाएँ वर्तमान रहती है 'नृपतीनां यच्चरितं नानारसभावसंभृतं बहुधा । सुखदुःखोत्पत्तिकृतं भवति हि तन्नाटकं नाम ।। नाट्यशास्त्र, १९/१२। अभिनेय काव्य के समुदाय में से मुख्य धर्मादिपुरुषार्थचतुष्टय में प्रवृत्त, उपदेश योग्य राजा आदि को शिक्षा प्रदान करने वाला होने से नाटक अन्य नाट्य प्रकारों से अलग है। नाना प्रकार के सौन्दर्य द्वारा सहृदय के हृदय को जो आनन्दातिरेक से नचाता है, उसे नाटक कहते हैं 'नाटकमिति नाटयति विचित्रं रञ्जनाप्रवेशेन सम्यानां हृदयं नर्तयतीति नाटकम् (नाट्यदर्पण, पृ. १७४)। नाटक की यह भी विशेषता है कि नाटक प्रधान पुरुषार्थ में राजा अर्थात् मुख्य नायक और उसके अङ्गरूप में अमात्यादि बहुतों को व्युत्पन्न करने वाला होता है। अत: इनसे भिन्न कुछ ही को व्युत्पत्ति प्रदान करने वाले प्रकरणादि 'नाटक' नहीं हो सकते। यद्यपि कथादि भी श्रोताओं के हृदय को प्रसन्न करते हैं, किन्तु वे उपाय, अङ्क, सन्धि आदि वैचित्र्य के न होने से इतने आनन्ददायक नहीं हो सकते। अत: इन्हें नाटक भी नहीं कहा जा सकता है। नाटक की सर्वङ्गपूर्णता- धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिविध फलों वाला अङ्क, उपाय, दशा, सन्धि से युक्त, देवता आदि जिसमें प्रधान नायक के सहायक हों, इस प्रकार का पूर्व काल के प्रसिद्ध राजाओं के चरित से युक्त नाटक होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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