Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 10
________________ भूमिका 'ख्याताधराजचरितं धर्मकामार्थसत्फलम् । साङ्कोपाय-दशा-सन्धिदिव्याङ्गः तत्र नाटकम् ।।' नाट्यदर्पण, १/३। नाटक-विवेचन में भरतमुनि ने स्पष्ट कर दिया है कि लोक के सुख-दुःख से समुत्पत्र अवस्था तथा नाना पुरुषों के जीवन की घटनाओं का चित्रण नाटक में होता है योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः । सोऽङ्गाद्यभिनयोपेतो नाट्यमित्यभिधीयते ।। नाट्यशास्त्र १/११९ नाटक में इतिहासादि में प्रसिद्ध चरित का ही नट के द्वारा अनुकरण किया जाता है। अर्थात् अवस्थाओं का अनुकरण ही 'नाट्य' है 'अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्......। दशरूपक १/७ इसमें समस्त ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला और कर्म का योग होता है 'न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला । न तत्कर्म न योगो वा नाटके यन्न दश्यते ।।' नाट्यशास्त्र १/११६ कैशिकी, सात्त्वती, भारती, आरभटी वृत्तियाँ नाट्य की मातृरूपा होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि नाटक में चारों वृत्तियाँ हों, इनमें से एक या दो या तीन या सभी हो सकती हैं'सर्वास्तु वृत्तयस्तत्र सर्वे तत्र तथा रसाः।' विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३/७/९ । 'मुद्राराक्षस' में कैशिकी वृत्ति नहीं है तथा 'वेणीसंहार' में केवल सात्त्वती और आरभटी वृत्तियाँ हैं। नाट्य इतिवृत्त को सुशृङ्खल एवं सरस बनाने के लिए मुख, प्रतिमुख आदि पाँच सन्धियों सहित सन्ध्यङ्गों की योजना अत्यन्त ही आवश्यक है। प्रत्येक सन्ध्यङ्ग की योजना हो यह आवश्यक नहीं, अपितु (कथावस्तु) इतिवृत्त को ध्यान में रखकर। केवल काव्य के शास्त्रीय पक्ष को पूरा करने के लिए सभी सन्ध्यङ्गों का प्रयोग उचित नहीं। साथ ही, अवस्था, अर्थप्रकृति अर्थोपक्षेपक से युक्त नाट्यइतिवृत्त का निबन्धन करना कवि का कर्तव्य है। इतिवृत्त का विभाजन अङ्कों में करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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