Book Title: Nalvilasnatakam Author(s): Ramchandrasuri Publisher: Parshwanath Vidyapith View full book textPage 8
________________ भूमिका रूपक (दृश्यकाव्य) इसका अर्थ है जिसका आनन्द साक्षात् नेत्रो के द्वारा भी लिया जाय। दृश्यकाव्य की परिधि में उन काव्यरूपों की परिगणना होती, जो नाट्य हों। नाट्य केवल दृश्य ही नहीं होता, श्रव्य भी होता है। आङ्गिक वाचिक, सात्विक और आहार्य अभिनयों के माध्यम से राम या सीता आदि की अवस्था के अनुकरण या सुख-दुःखात्मक संवेदनाओं के प्रतिफलन आदि के द्वारा नाट्य को रूप प्राप्त होता है। 'नाट्य' शब्द से केवल यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि इसके द्वारा नायक या नायिका का रूप ही रूपायित होता है, अपितु उसका सम्पूर्ण जीवन रस आत्मलीनता की स्थिति से आस्वाद्य या अनुभवगम्य होता है। यह रस वह अलौकिक चमत्कार या चरम आनन्द है, जो नाट्य के माध्यम से आस्वाद्य होता है। नाट्य प्राचीन भारतीय वाङ्मय का बहुत ही लोकप्रिय शिल्प रहा है। वैदिक काल में नाट्य तो नहीं, किन्तु 'नृत्त' शब्द का प्रयोग वैदिक ऋषियों द्वारा किया गया है- (क) आगमनृत्तये (ऋग्वेद १०/१८/३) (ख) नृत्ताय सूतम् (यजुर्वेद, ३०/ ६०)। 'नट' शब्द का प्रयोग पाणिनि द्वारा ही सम्भवत: सर्वप्रथम किया गया है। नटसूत्रों में नाट्य का विधान था (द्रष्टव्य अष्टाध्यायी, ४/३/११०)। नृत्त और नट दोनों शब्द नृत्य और अभिनय के बोधक थे जैसा कि भारतीय नाट्यशास्त्र के सन्दर्भ ग्रन्थों से पता चलता है। 'मालविकाग्निमित्रम्नाटक के आरम्भिक दो अङ्कों में कालिदास के द्वारा नाट्य शब्द का प्रयोग नृत्य और अभिनय दोनों के लिए किया गया हैं। इसमें मालविका ने दुष्प्रयोज्य चतुष्पदी 'छलिक' का अभिनय किया है। इसमें आहार्य अभिनय को छोड़कर शेष आङ्गिक, सात्त्विक, वाचिक अभिनय, गीत एवं नृत्य का समन्वित प्रयोग हुआ है। वस्तुतः नृत्य नाट्य का निकटवर्ती है, किन्तु नाट्य में नृत्य की अपेक्षा सर्वाङ्गपूर्णता रहती है। अभिनय के मूल में नानावस्थात्मक लोक चरित वर्तमान रहता है। इसीलिए तो नाट्य में नानाविध-रसमयता भी रहती है। श्रव्य के साथ-साथ -दृश्य होने के कारण नाट्य को दृश्य रूप भी कहा जाता है। (रूपं दृश्यतयोच्यते- दशरूपक) अभिनवगुप्त के अनुसार नाटक शब्द नमनार्थक 'नट' शब्द से व्युत्पन्न होता है। इसमें पात्र अपने भाव को त्यागकर पर-भाव को ग्रहण करता है (अभिनवभारती, भाग ३, पृ.८०, दशरूपक, १/७)। जिस प्रकार रूपक अलंकार में मुखादि में चन्द्रादि के आरोप द्वारा एक सौन्दर्य-विशेष का अनुभव होता है, उसी प्रकार नट में राम आदि की अवस्था का आरोप होता है, इसलिए नाट्य को रूपक शब्द से भी अभिहित किया जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 242