Book Title: Mulachar ka Anushilan Author(s): Kailashchandra Shastri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 5
________________ ७५ मूलाचार का अनुशीलन अधिकार में भी कुछ गाथाएँ हैं जो पाठभेद या शब्दभेद के साथ श्वेताम्बरीय पिण्डनियुक्ति में पाई जाती है। मूलाचार की अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों भगवती आराधना में मिलती हैं। मूलाचार की तरह उक्त सभी ग्रन्थ प्राचीन हैं अतः किसने किससे क्या लिया यह शोध और खोज का विषय है। किन्तु इससे इतना तो सुनिश्चित रीति से कहा जा सकता है कि यह आचार्य कुन्दकुन्द की कृति नहीं हो सकती, यद्यपि प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में इसे उनकी कृति कहाँ है, क्यों कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इस प्रकार की गाथाओं की बहुतायत तो क्या थोड़ी भी उपलब्धि नही होती जो अन्य ग्रन्थों में भी पाई जाती हों । प्रत्युत कुन्दकुन्द की ही गाथाएँ तिलोयपण्णत्ति जैसे प्राचीन ग्रन्थों में पाई जाती है और ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि कुन्दकुन्द एक प्रख्यात प्रतिष्ठित आचार्य थे । इसके साथ ही हमें यह भी न भूलना चाहिए कि मूल में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों धाराएँ एक ही स्रोत से निष्पन्न हुई हैं अतः प्राचीन गाथाओं का दोनों परम्पराओं में पाया जाना संभव है । ___टीकाकार वसुनन्दि इसे वट्टकेराचार्य की कृति कहते हैं। किन्तु अन्यत्र कहीं भी इस नाम के किसी आचार्य का उल्लेख नहीं मिलता । साथ ही नाम भी कुछ ऐसा है कि उस पर से अनेक प्रकार की कल्पनाएँ' की गई हैं, किन्तु जब तक कोई मौलिक आधार नहीं मिलता तब तक यह विषय विवादापन्न ही रहेगा। मूलाचार का बाह्यरूप किन्तु इतना सुनिश्चित प्रतीत होता है कि टीकाकार वसुनन्दि को यह ग्रन्थ इसी रूप में मिला था और यह उनके द्वारा संग्रहीत नहीं हो सकता उनकी टीका से या प्रत्येक अधिकार के आदि में प्रयुक्त उत्थानिका वाक्यों से किञ्चिन्मात्र भी ऐसा आभास नहीं होता। वे बराबर प्रत्येक अधिकार की संगति ही दर्शाते हैं। मूलाचार में बारह अधिकार हैं—मूलगुणाधिकार, बृहत्प्रत्याख्यान संस्तर स्तवाधिकार, संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार, समाचाराधिकार, पंचाचाराधिकार, पिण्डशुद्धिअधिकार, घडावश्यकाधिकार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, अनगारभावनाधिकार, समयसाराधिकार, शीलगुणप्रस्ताराधिकार, पर्याप्तिनामाधिकार । प्रत्येक अधिकार के आदि में मंगलाचरण पूर्वक उस उस अधिकार का कथन करने की प्रतीज्ञा पाई जाती है किन्तु दूसरे और तीसरे अधिकार के आदि में उस प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं है किन्तु जो सल्लेखना ग्रहण करता है उसके प्रत्याख्यान ग्रहण करने की प्रतिज्ञा है। मूल गुणों का कथन करने के पश्चात् ही मरण के समय होने वाली सल्लेखना का कथन खटकता है। दूसरे अधिकार की उत्थानिका में टीकाकार ने कहा है, 'मुनियों के छःकाल होते हैं। उनमें से आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्धकाल तीन १. देखों-जैनसिद्धान्त भास्कर (भाग १२, किरण १) में श्री. प्रेमी जी का लेख, तथा अनेकान्त (वर्ष ८, कि. ६-७) में मुख्तार जगलकिशोरजी का लेख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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