Book Title: Mulachar ka Anushilan
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 8
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ स्त्री रूप को देखकर उनमें जो चाह रूप परिणाम नहीं करता, अथवा मैथुन संज्ञा से रहित परिणाम को चौथा व्रत कहते हैं। यह स्वरूप कितना जोरदार और यथार्थ है । परिणाम भी न होने से ही व्रत होता है यही जैन दृष्टि है। मूलाचार में परिग्रह त्याग व्रत का स्वरूप इस प्रकार कहा है--- जीवणिबद्धा वद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव । तेसिं सक्कच्चागो इयरम्मि णिम्मओऽसंगो ॥९॥ जो परिग्रह जीव से निबद्ध हैं, तथा अबद्ध हैं और जो जीव से उत्पन्न होने वाली हैं उनका शक्ति के अनुसार त्याग करना और जो शेष हैं उनमें ममत्व न करना परिग्रह त्याग व्रत है। इसमें शक्ति के अनुसार त्याग पद खटकता है। टीकाकार ने तो उन सब का मन वचन काय से सर्वथा त्याग बतलाकर उसे सम्हाल दिया है । नियमसार में कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं सव्वेसिं गंथाणं चागो णिखेक्टन भावणापूव्वं । पंचमवदमिदि भणिदं चरित्तभारं वहंतस्स ॥ निरपेक्ष भावनापूर्वक समस्त परिग्रह के त्याग को चारित्र का भार वहन करनेवाले साधुओं का पांचवा परिग्रह त्यागवत कहा है। इसी तरह व्रतों की भावनाओं में से तृतीयव्रत की भावना मूलाचार में बिलकुल भिन्न हैं । मूलाचार में एक प्रकरण समयसार नाम से है, किन्तु कुन्दकुन्द के समयसार की उसमें छाया भी नहीं है। हां, साधु के योग्य जो शिक्षा उसमें दी गई है वह उपयुक्त है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु समयसार नाम से ख्यात कुन्दकुन्द की दृष्टि की उसमें कोई बात नहीं है, अतः हमें वह कुन्दकुन्द की कृति प्रतीत नहीं होती । अस्तु । मूलाचार का अन्तरंग परिचय मूलाचार में साधु के आचार का वर्णन है अतः मूलाचार में प्रतिपादित साधु आचार का क्रमिक वर्णन करने से ही मूलाचार का अन्तरंग परिचय हो जाता है तथा उसके साथ ही साधु के आचार का भी क्रमिक परिचय हो जाता है । इसलिए हम साधु आचार के क्रमिक परिचय के द्वारा मूलाचार के विषय का परिचय कराते हैं। दीक्षा और उसके योग्य पात्र-मूलाचार में दीक्षा के योग्य पात्र का तथा उसकी विधि वगैरह का वर्णन हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ । प्रवचनसार के चारित्राधिकार के प्रारम्भ में उसका संक्षिप्त आभास मिलता है कि जो मुनि दीक्षा लेना चाहता हैं वह अपने बन्धु बान्धवों से अनुज्ञा प्राप्त करके गणी के पास जाता है और उन्हें नमस्कार करके दीक्षा देने की प्रार्थना करता है। उनकी आज्ञा मिलने पर सिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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