Book Title: Mulachar ka Anushilan
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 11
________________ मूलाचार का अनुशीलन ८१ और देव वन्दना करके आगे चार हाथ जमीन देखते हुए स्थूल और सूक्ष्म जीवों को सम्यक् रीति से देखते हुए सावधानतापूर्वक सदा गमन करना चाहिये । तथा प्रासुक मार्ग से ही गमन करना चाहिये । जिस मार्ग पर बैलगाडी, रथ, हाथी, घोडे मनुष्य जाते आते हो वह मार्ग प्रासुक है । जिस मार्ग से स्त्री पुरुष जाते हो या जो सूर्य के धाम से तप्त हो, जोता गया हो वह मार्ग प्रासुक है । मूलाचार ( ९' ३१ ) में बिहार शुद्धि का कथन करते हुए लिखा है कि समस्त परिग्रह से रहित साधु वायु की तरह निःसंग होकर कुछ भी चाह न रख कर पृथ्वी पर विहार करते हैं । वे तृण, वृक्ष छाल, पत्ते, फल, फूल, बीज वगैरेह का छेदन न करते हैं न कराते हैं । पृथ्वीका खोदना आदि न करते हैं, न कराते हैं, न अनुमोदना करते हैं, जल सेचन, पवन का आरम्भ,' अग्निका ज्वालन आदि भी न करते हैं न कराते हैं और न अनुमोदन करते हैं । एकत्र आवास का नियम - यह हम लिख आये है कि साधु को वर्षा में एक स्थान पर रहना चाहिये किन्तु साधारणतया साधु को नगर में पांच दिन और ग्राम में एक रात वसने का विधान है (९।१९)। टीका में लिखा है कि पांच दिन में तीर्थयात्रा वगैरह अच्छी तरह हो सकती है। इससे अधिक ठहरने से मोह आदि उत्पन्न होने का भय रहता है । किन्तु मूलाचार के समयसाराधिकार में साधु के दस कल्प बतलाये है उनमें एक मास कल्प है । उसकी टीका में लिखा है को साधु का वर्षायोग ग्रहण करने से पहले एक मास रहना चाहिये फिर वर्षायोग ग्रहण करना चाहिये और वर्षायोग समाप्त कर के एक मास रहना चाहिये । वर्षायोग से पूर्व एक मास रहने में दो हेतु बतलाये हैं- लोगों की स्थिति जानने के लिये तथा अहिंसा आदि व्रतों के पालन के लिये । और वर्षायोग के पश्चात् एक मास ठहरने का कारण बतलाया है- - श्रावक लोगों को जाने से जो मानसिक कष्ट होता है उसके दूर करने के लिये । दूसरा अर्थ मास का यह किया है कि एक ऋतु में दो मास होते हैं । एक मास भ्रमण करना चाहिए और एक मास एकत्र रहना चाहिये । भगवती आराधना में भी (गा. ४२१ ) दसकल्प हैं । उसकी विजयोदया टीका में लिखा है छ ऋतुओं में एक एक महीना ही एकत्र रहना चाहिये, एक महीना विहार करना चाहिये । इसका मतलब भी एक ऋतु में एक मास एकत्र अवस्थान और एक मास भ्रमण है । भिक्षा भोजन - मूलाचार में भोजन के योग्यकाल का कथन करते हुए लिखा हैसूरुदयत्थमणादो णालीतियवज्जिदे असणकाले । तिगदुग एगमुत्ते जहणमज्झिम्ममुक्कस्से ६ | ७३ | अर्थात् सूर्योदय से तीन घटिका पश्चात् और सूर्यास्त से तीन घटिका पूर्व साधु का भोजन काल है । तीन ११ १. आज के युग में बिजली के पंखे और लाइट के उपयोग में भी कृत, कारित अनुमोदन नहीं होना चाहिये । इन का उपयोग करने से अनुमोदना तो होती ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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