Book Title: Mulachar ka Anushilan
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 12
________________ ८२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ मुहुर्त में भोजन करना जघन्य आचरण है, दो मुहुर्त में करना मध्यम आचरण है और एक मुहुर्त में भोजन कर लेना उत्कृष्ट आचरण है । भोजन को छियालीस दोष बचाकर ग्रहण करना चाहिये । इनका कथन पिण्ड शुद्धि नामक छठे अधिकार में किया है । साधरण तया भोजन 'नवकोटि परिशुद्ध' होना चाहिये अर्थात मनसा वाचा कर्मणा तथा कृत कारित अनुमोदन से रहित होना चाहिये । मूलाचार में कहा है भिक्खं सरीरजोग्गं सुभत्तिजुत्तेण फासूयं दिण्णं । दव्वपमाणं खेतं कालं भावं च णादूण ॥ ५२ ॥ णवकोडीपडिसुद्धं फाय सत्थं च एसणासुद्धं । दसदोसविप्पमुक्कं चोदसमलवज्जियं भुंजे ॥ ५३ ॥ अर्थात् भक्तिपूर्वक दिये गये, शरीर के योग्य, प्रासुक, नवकोटि विशुद्ध एषणा समिति से शुद्ध, दस दोषों और चौदह मलों से रहित भोजन को द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानकर खाना चाहिये । स्थिति भोजन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है । साधु को बिना किसी सहारे के खड़े होकर अपने अञ्जलिपुर में आहार ग्रहण करना चाहिये। दोनों पैर सम होने चाहिये और उनके मध्य में चार अंगुल का अन्तराल होना चाहिये । भूमित्रय - जहां साधु के पैर हों तथा जहां जूठ न गिरे वे तीनों भूमियाँ परिशुद्ध - जीव घातरहित होना चाहिये । साधु को अपना आधा पेट भोजन से भरना चाहिये । एक चौथाई जल से और एक चौथाई वायु के लिये रखना चाहिये । भोजन का परिमाण बत्तीस ग्रास कहा है और एक हजार चावलों का एक ग्रास कहा है (५।१५३) । टीका में कहा है कि बत्तीस ग्रास पुरुष का स्वाभाविक आहार है । भोजन के अन्तरायों का भी विवेचन दृष्टव्य है । दैनिक कृत्य - साधु को अपना समय स्वाध्याय और ध्यान में विशेष लगाना चाहिये । मूलाचार (५/१२१ ) की टीका में साधु की दिनचर्या इस प्रकारही है । सूर्योदय होने पर देववन्दना करते हैं । दो घड़ी बीत जाने पर श्रुतभक्ति और देवभक्ति पूर्वक स्वाध्याय करते हैं । इस तरह सिद्धान्त आदि की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और पाठादि करते हैं । जब मध्याह्नकाल प्राप्त होने में दो घड़ी समय शेष रहता है तो श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय समाप्त करते हैं । फिर अपने वासस्थान से दूर जाकर शौच आदि करते हैं । फिर हाथ पैर आदि धोकर कमण्डलु और पीछी लेकर मध्याह्नकालीन देववन्दना करते हैं । फिर पूर्णोद बालकों को तथा भिक्षा आहार करने वाले अन्य लिंगियो को देखकर भिक्षा का समय ज्ञात करके जब गृहस्थों के घर से धुआं निकलता दृष्टिगोचर नहीं होता तथा कूटने पीसने का शब्द नहीं आता तब गोचरी के लिये चलते हैं । जाते हुए न अतितीव्र गमन करते हैं, न मन्द गमन करते हैं और न रुक रुक कर गमन करते हैं । गरीब और अमीर घरों का विचार नहीं करते । मार्ग में न किसी से बात करते हैं और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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