Book Title: Mulachar Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 4
________________ ११४ परन्तु डॉ. फूलचन्द 'प्रेमी' की यह कृति तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। जहाँ तक मूलाचार में प्रतिपादित विषयों के विवरणात्मक विवेचन का प्रश्न है, मैं कोई अधिक विस्तृत विवेचन प्रस्तुत नहीं करना चाहता, यद्यपि आचार के उन सभी नियमों के इतिहास की दृष्टि से पर्याप्त रूप से विवेचन किया जाना अपेक्षित है, किन्तु इसे भविष्य के विवेचन के लिए छोड़कर मैं केवल ग्रन्थ स्वरूप, ग्रन्थकार और उसकी परम्परा आदि पर ही संक्षेप में विचार प्रस्तुत करना चाहँगा। यद्यपि इन प्रश्नों पर डॉ. फूलचन्द जैन ने भी विचार किया है किन्तु न तो उनके विचारों को और न ही मेरे विचारों को अंतिम कहा जा सकता है। मेरी अपेक्षा तो यही है कि इस प्रकार के चिन्तन अनुचिन्तन से इस ग्रन्थ के विविध पक्षों के अध्ययन की धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहे। विद्वानों से अपेक्षा है कि युक्तिपूर्वक समीक्षा के माध्यम से इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में और अधिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करें। मूलाचार के कर्ता सर्वप्रथम हम इस ग्रन्थ के कर्ता के सम्बन्ध में विचार करेंगे। मूलाचार के कर्ता के प्रश्न को लेकर मुख्य रूप से दो प्रकार की मान्यताएं प्रचलित हैं। कुछ लोग इसे आचार्य कुन्दकुन्द की कृति मानते हैं तो दूसरी ओर कुछ लोग इसे आचार्य वट्टकेर की कृति मानते हैं। जो लोग इसे आचार्य कुन्दकुन्द की कृति मानते हैं उनका एक मात्र आधार मूलाचार की कुछ प्रतियों में अंतिमप्रशस्ति में "कुन्कुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचारास्य'' विवृत्ति कृतिरियम् वसुनन्दीन: श्रीश्रमणस्य" यह उल्लेख पाया जाना है। मूलाचार की वसुनन्दि के वृत्ति के अतिरिक्त मुनि चिन्तामणि की एक टीका भी मूलाचार पर मिलती है। इसकी पुष्पिका में भी "कुन्दकुन्दाचार्यदेव विरचिते मूलाचारे" ऐसा लिखा हुआ है। इन दो उल्लेखों के अतिरिक्त मूलाचार आचार्य कुन्दकुन्द की कृति है, ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि मूलाचार की वसुनन्दि की वृत्ति के प्रारम्भ और अन्त में भी स्पष्ट रूप से इसके कर्ता श्री वट्टकेराचार्य का उल्लेख मिलता है। जब स्वयं वृत्तिकार ही इसे श्रीमदाचार्य वट्टकेर प्रणीत मूलाचार उल्लेख करता है तो फिर इस शंका के लिए कोई स्थान नहीं रहता कि यह वट्टकेर की कृति नहीं है और तब परवर्ती किसी लिपिकार के द्वारा ग्रन्थ के अन्त में कुन्कुन्द का नाम उल्लेख कर देने मात्र से इसे कुन्दकुन्द का ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। मुनि चिन्तामणी नायक की जो मूलाचार पर टीका उपलब्ध है, वह वसनन्दि के बाद की है और उसकी प्रति भी प्राचीन नहीं है। अत: उसकी पुष्पिका में कुन्दकुन्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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