Book Title: Mulachar
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 2
________________ ११२ सकता। इसमें कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जो दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं है। उदाहरणार्थ इसमें स्त्री-मुक्ति से सम्बन्धित निम्न गाथा पाई जाती है - एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ । ते जगपुज्जं कित्ति सुहं च लदूण सिज्झति ॥ इस गाथा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि 'जो साधु-साध्वी इस प्रकार की चर्या का पालन करते हैं, वे जगत्पूज्यत्व एवं कीर्तिसुख को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वानों ने इस गाथा की व्याख्या भवान्तर मुक्ति के सन्दर्भ में करके, इसे अपनी परम्परा से सम्बद्ध बताने का प्रयास किया है, जिस पर हम आगे विस्तृत चर्चा करेंगे । यहाँ हमारा मन्तव्य इतना ही है कि यह गाथा दिगम्बर परम्परा के विरोध में अवश्य जाती है। जैन परम्परा आचार प्रधान है, यद्यपि उसमें साधनापथ में चारित्र के साथसाथ ज्ञान और दर्शन (भक्ति) को भी स्थान प्राप्त है। किन्तु वे जब तक आचरण से संयुक्त नहीं होते तब तक मोक्ष की उपलब्धि कराने में सक्षम नहीं माने गये हैं। मोक्ष की उपलब्धि का अन्तिम कारण तो सम्यक् चारित्र ही माना गया है। उसमें दर्शन और ज्ञान भी आचरण का अंग है। स्वयं मूलाचार में दर्शन और ज्ञान को भी पाँच आचारों में परिगणित किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान और दर्शन मात्र बोध या आस्था की वस्तुएँ नहीं हैं, वे भी जीवन में जीने के लिए हैं। मूलाचार में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के रूप में पाँच आचारों का उल्लेख पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा आचार प्रधान है ! पुनः जैन आगमों में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी के रूप में चार प्रकार की दार्शनिक विचारधाराओं का उल्लेख है। इनमें भी जैन अपने आप को क्रियावादी के ही निकट मानते हैं। आचारांगसूत्र के प्रारम्भ में ही महावीर ने कहा कि जो आत्मा को और उसके (चतुर्गति में ) संचरण को अर्थात् पुनर्जन्म को मानता है, वही आत्मवादी, लोकवादी, क्रियावादी और कर्मवादी है। इस प्रकार जैन परम्परा आचार प्रधान सिद्ध होती है। इस तथ्य का एक अन्य प्रमाण यह भी है कि जैन परम्परा में ग्रन्थ निर्माण की प्रक्रिया में सर्वप्रथम आचारांग की रचना हुई, ऐसा माना जाता है। आज महावीर की निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा मुख्यत: दो भागों में विभाजित है। श्वेताम्बर और दिगम्बर । श्वेताम्बर परम्परा में आज भी जो प्राचीन आगमिक ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारदशा www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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