Book Title: Mulachar Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 8
________________ ११८ अध्ययन से भी कुछ गाथाएं मिलती हैं। अत: इन आधारों पर यही मानना होगा कि ये गाथाएं भूलाचारकार ने अन्य ग्रन्थों से ही ली हैं। जब वह आवश्यकनियुक्ति को कहने की प्रतिज्ञा करके आवश्यकनिर्युक्ति की गाथाएं प्रस्तुत करता है, तो इससे फलित यही होता है कि वह न केवल उस ग्रन्थ से परिचित है, अपितु उसे ही प्रस्तुत भी कर रहा है। इसी प्रकार भूलाचार में "जदं चरे जदं चिट्ठे" के रूप में दशवैकालिक की गाथाएँ उपलब्ध होती हैं तो हम यह तो नहीं कह सकते कि दशवैकालिक में ये गाथाएँ मूलाचार से ली गई हैं, क्योंकि भाषा, भाव, रचयिता आदि की दृष्टि से विद्वानों को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि दशवैकालिक मूलाचार से प्राचीन है। अतः इतना तो निश्चित है कि इस ग्रन्थ में अन्य ग्रन्थों की गाथाओं का संग्रह किया गया है। मूलाचार में अनेक गाथाएं ऐसी हैं जो दो-दो बार आई हैं। इससे भी यही फलित होता है कि मूलाचार एक संग्रह ग्रन्थ है । पुनः मूलाचार में अनेक गाथाओं में स्पष्ट अन्तर्विरोध है, इससे भी यह फलित होता है कि वह संग्रह ग्रन्थ है। किन्तु इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि ग्रन्थ कर्ता ने अपनी मौलिकता का कोई परिचय ही नहीं दिया है। स्पष्टतः मूलाचार एक उद्देश्यपूर्ण रचना है। उसमें मुनि आचार के प्रतिपादन के उद्देश्य को लेकर ही गाथाओं का संकलन किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, मुझे यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि उसकी अनेक गाथाएं स्वयं कर्ता की रचना हो सकती हैं। वस्तुत: जिस प्रकार एक माली विभिन्न कुसुमों का संचय करके एक सुनियोजित उद्देश्य से किसी विशिष्ट माला का निर्माण करता है उसी प्रकार आचार्य वट्टकेर ने इस ग्रन्थ की रचना की। अतः निर्णय रूप में यही कहा जा सकता है कि आचार्य वट्टकेर ने विभिन्न ग्रन्थों से सामग्री का संकलन करके एक सुनियोजित ढंग से अपनी परम्परा के मुनियों के आचार के लिए इस ग्रन्थ का निर्माण किया था। जिन विद्वानों को इसे संग्रह ग्रन्थ मानने में आपत्ति होती है वे कभी-कभी ऐसा विचित्र तर्क देते हैं कि भद्रबाहु श्रुतकेवली तक दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे भेदों की सृष्टि नहीं हुई थी, उस समय तक भगवान महावीर का शासन यथाजातमुद्रा रूप में ही चल रहा था, उनके द्वारा रचित निर्युक्तियां उस समय साधु समाज में प्रचलित थीं, खासकर उनके शिष्यों-प्रशिष्यों में उनका पठन-पाठन बराबर चल रहा था। ऐसी स्थिति में मूलाचार में कुछ गाथाओं की समानता पर से आदानप्रदान की कल्पना करना संगत नहीं जान पड़ता। आश्चर्य इस बात को लेकर होता है कि यदि दिगम्बर परम्परा में नियुक्तियों का पठन-पाठन बराबर चल रहा था तो फिर वे अचानक लुप्त कैसे हो गईं और दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तत्त्वार्थसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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