Book Title: Mulachar
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 13
________________ मूलाचार : एक अध्ययन : 123 है। जबकि समयसार में रत्तो, बंधदि, मुंचदि, जिणोवदेसो - ये चारो शब्द विशुद्ध रूप से शौरसेनी प्राकृत के रूप हैं। मुलाचार में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' न होकर ‘य श्रुति' का पाया जाना यह सूचित करता है कि उसके लेखक पर महाराष्ट्री का प्रभाव है। इसी प्रकार मूलाचार के मूल गुण अधिकार की १२वी गाथा और 'नियमसार' की ६२वीं गाथा भी लगभग समान है। यद्यपि इनमें कुछ भिन्नता भी है, इस गाथा में जहाँ मूलाचार में 'सपरिहरि' शब्द का प्रयोग है वहाँ नियमसार में 'सपरहिदं' का प्रयोग है। यहाँ भी मूलाचार में महाराष्ट्री का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। मूलाचार पंचाचाराधिकार की २८वीं एवं १३१वीं गाथा में जहाँ 'लिप्पई' शब्द है, वहीं 'लिप्पदि' शब्द भी है। एक ही ग्रन्थ में यह भाषा के स्वरूप का भेद विचारणीय है। यद्यपि इसी प्रकार का भाषा-भेद कन्दकन्द के ग्रन्थों में भी पाया जाता है। जहाँ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में कुछ स्थलों पर महाराष्ट्री प्रभावित रूप मिला है, वहाँ मूलाचार में शुद्ध शौरसेनी रूप भी मिला है। उदाहरण के रूप में चरित्रपाहुड़ की ३४वी गाथा में 'वीरओ' रूप है वहीं मूलाचार के पंचाचाराधिकार में 'वीरदि' रूप है। स्वयं मूलाचार में भी अर्धमागधी या महाराष्ट्री के साथ शौरसेनी के रूप भी मिलते हैं। उदाहरण के रूप में समाचाराधिकार की १६२वीं गाथा में 'आएसस्स पाठ है, जिसका संस्कृत रूप 'आगतस्य' है वहीं १६३वीं गाथा में 'आगन्तुय' है। इसी प्रकार 'व्रतप्रत्याख्यान संस्तरस्तवाधिकार' की गाथा 56 में 'भणदि' रूप है। वहीं उसी की गाथा ५९वीं गाथा में महाराष्ट्री का 'भणति' रूप है। इसी अधिकार की गाथा 76 में 'पंडियमरण' रूप है, जबकि गाथा 77 में 'पंडिदभरणं' रूप मिलता है। आश्चर्य यह भी है कि उसके पूर्व ७६वी गाथा के प्रथम चरण में 'जाति' का 'जादि' रूप प्रयुक्त है। ५७वीं गाथा में 'लहइ' रूप आया है, जबकि ११८वीं गाथा में 'लहदि' रूप है। 'लहई' शुद्ध रूप से महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग है। गाथा 101 के प्रथम, द्वितीय चरण में "मरिदत्वं' पाठ है, आश्चर्य यह भी है कि इसी गाथा के अन्त में (101 वी गाथा में) 'मरियव्वं' रूप भी है। गाथा 103 में 'होई' रूप का प्रयोग है, जबकि अन्यत्र अनेक गाथाओं में 'होदि' रूप है। गाथा 117 में 'छिन्दइ' रूप मिलता है जबकि अन्यत्र 'छिन्ददि' रूप का भी प्रयोग हुआ है। केवल प्रारम्भिक तीन अध्ययनों से ही ये उदाहरण दिये हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में इस प्रकार के अनेक रूप जो महाराष्ट्री अर्धमागधी से प्रभावित हैं, देखे जा सकते हैं। इस आधार पर हमारा प्रतिपाद्य मात्र इतना ही है कि इस ग्रन्थ के निर्माण में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों, प्रकीर्णकों, नियुक्तियों आदि का पूरा उपयोग हुआ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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