Book Title: Mithila aur Jain Mat Author(s): Upendra Thakur Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 4
________________ ३२० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड उस समय बौद्ध, जैन और ब्राह्मण नैयायिकों में निरन्तर दार्शनिक वाद-विवाद होते रहते थे । बौद्ध और ब्राह्मण नैयायिकों के बीच कभी-कभी तो यह विवाद बहुत ही उग्र हो जाता था पर जैन और ब्राह्मण दार्शनिकों के बीच इस प्रकार की कटुता कभी भी उत्पन्न नहीं होती थी । वास्तविकता तो यह है कि श्रमण- मुनि (जैन) तथा वैदिक ऋषि इतिहास के प्रारम्भ से हो एक साथ अपने -अथने क्षेत्र में कार्य करते रहे, यद्यपि उनके आदशों और कार्य-प्रणाली में भिन्नता रही। यह सही है कि कभी-कभी दोनों पक्षों के बीच प्रतिस्पर्धा और असहिष्णुता तीव्र हो उठती क्योंकि उनके आदर्श बहुत हद तक एक दूसरे से भिन्न थे, फिर भी सामान्य जनों में उनको प्रतिष्ठा बनी रही। इसके परिणाम स्वरूप शनैः शनैः ये दोनों शब्द 'ऋषि' और 'मुनि' - - एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये" । और, एक समय ऐसा भी आया जब श्रमण मुनियों ने यह दावा किया कि वास्तव में वे ही सच्चे ब्राह्मण है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये दार्शनिक वाद-विवाद, भारतीय दर्शन के लिए अमूल्य वरदान सिद्ध हुए जिसके फलस्वरूप भारतीय तर्कशास्त्र का असाधारण विकास एवं प्रचार हुआ । : ४ : यद्यपि किसी अशोक अथवा हर्षवर्धन द्वारा जैन धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं किया गया, फिर भी ऐसे कई शासकों के दृष्टान्त हमारे सामने हैं जिन्होंने इस धर्म को स्वीकार कर लिया था । जैन सूत्रों के अनुसार पार्श्वनाथ काशीनरेश अश्वसेन के पुत्र थे । 'सूत्रकृतांग' और अन्य जैन ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि राजघरानों में पार्श्वनाथ का काफी प्रभाव था और महावीर के समय में भी मगध तथा आसपास के क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में उनके अनुयायी थे । स्वयं महावीर का परिवार भी पार्श्वनाथ का ही अनुयायी था २४ । छठी सदी ई० पूर्व में जब महावीर ने जैन संघ में सुधार किये, तो उन्हें पार्श्वनाथ के इन अनुयायियों को सन्तुष्ट कर अपने नये संशोधित समुदाय में सम्मिलित होने के लिये काफी प्रयास करना पड़ा था । में पार्श्वनाथ की भाँति हो महावीर का भी सम्बन्ध राजवंशों से था । तत्कालीन षोडश महाजनपद में जो 'अट्ट कुल' (अष्टकुल) थे, उनमें विदेह, लिच्छवि, ज्ञात्रिक तथा बज्जि वंशों का प्रमुख स्थान था । इसके अतिरिक्त, जैन सूत्रों में ऐसे बहुत साक्ष्य हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि जैनमत विदेहों की काफी रुचि थी। मिथिला के जनक राजवंश के संस्थापक निमि (नामि अथवा नेमि ) के बारे में जैन सूत्रों में ऐसा उल्लेख आया है कि उन्होंने जैन धर्म को स्वोकार कर लिया था । इसके अतिरिक्त, महावीर ने मिथिला में छह वर्षा वास बिताये थे । वास्तविकता चाहे जो भी हो, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि मिथिला में कम से कम एक वर्ग सो ऐसा था जो महावीर का अनन्य भक्त था । प्राचीन अंग ( आधुनिक भागलपुर जो प्राचीन भारत में विदेह का ही एक अंग था) की राजधानी चम्पा भी जैन - कार्यकलापों का एक प्रमुख केन्द्र थी जहाँ महावीर ने तीन 'वर्षा-वास' किये थे । 'उवासगदसाओं' तथा 'अंतगडदसाओ' से हमें ज्ञात होता है कि महावीर के शिष्य सुधर्मन —जो उनके निर्वाण के पश्चात् जैन समुदाय के प्रधान हुए में चम्पा में पुण्णभद्द (पूर्णभद्र ) मन्दिर का निर्माण किया गया था । सुन का इस नगर में पदार्पण हुआ था और गणधर के दर्शन के लिए स्वयं अजातशत्रु नंगे पाँव नगर से बाहर उनका समय कहते हैं, कुणिक अजातशत्रु के शासन काल में स्वागत करने गया था । बाद में सुधर्मन के उत्तराधिकारियों ने भी इस नगर का भ्रमण किया। अतः इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं कि वैशाली के लिच्छवियों की सहायता के फलस्वरूप महावीर को सभी दिशाओं से समर्थन मिला और देखते-देखते जैनधर्म का प्रभाव इस समय के प्रमुख शक्तिशाली राज्यों - सौवीर, अंग, वत्स, अवन्ति, विदेह (मिथिला) और मगध में उत्तरोत्तर बढ़ता गया । यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में वैशाली की काफी चर्चा के बावजूद भी, चेतक का कोई उल्लेख नहीं मिलता । जैकोबी का यह कथन सही जान पड़ता है कि बौद्धों ने उसकी उपेक्षा जानबूझ कर की । उसने अपने प्रतिद्वद्वियों (जैनियों) की समृद्धि में किन्तु जैनियों ने अपने तीर्थंकर के उस अधिक अभिरुचि नहीं दिखायो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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